Saturday, April 30, 2016

इरादे ख्वाब के समझें किधर से

बहर 122 2 12 2 2 122
गिरह :
हज़ारों चिलमने चाहे छुपा लें
बचा है झूठ कब सच की नज़र से

मतला :
इरादे ख्वाब के समझें किधर से
सफर हो रात का तेरी नज़र से

बड़ी है रौशनी जब से मिले हो
ज़रा नज़दीक आ जाओ सफर से

चरागर देख लो मेरी नफस को
घुला सा रह गया दिल उस असर से

रहो गे कारवां में सफर भर तुम
मिलेगा क्या मगर उसकी डगर से

उतर कर आइने में अक्स छुपा
कहो तुम असल से निबटे शहर से

बहुत तक़दीर वो ले कर उड़ा था
खुली परवाज़ में छुपता किधर से

रही कुछ उलझने उसको ज़यादा
घनी उस जुल्फ में खोया जिगर से

रुका क्यों रह गया बुझदिल यहाँ पर
बज़्म में लौट जा उसकी इधर से

भरे हैं हम नवाले दिल कि बातें
ज़रा सा प्यार कर ले हम नज़र से

मिसालें ढून्ढ मत कुछ और कर ले
न ही बदले न बदलेंगे असर से

कभी तू और में बसने हमें दे
पुराना हो गया हूँ इस सफर से

हज़ारों शौक थे कुछ भूलि बातें
अभी तक सांस लेती हैं कबर से

बदी को आह में भर कर चला जो
हटा लो हर कदम उसकी डगर से

बड़ा आज़ाद था साड़ी क पल्लू
बंधा है  हार कर तेरी कमर से

नसें गुलनार सी, पायल तो देखो
बिछी है पाँव पर शायर जिगर से

बहुत ही नरगिसी आगोश तेरी
हमारे ज़ख्म हैं तेरी नज़र से

शुआएं चूम लूं नज़दीक आओ
दिले महरूम हैं एक हमसफ़र से

~ सूफ़ी बेनाम


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