Friday, February 28, 2014

फ़ितूर

कैसा ख़ासाक सा है जीने का फ़ितूर
यहाँ सूखे पत्ते भी गर्द में
ज़िन्दगी से  पहचान  की
उम्मीद से घूमते हैं।

जहाँ मेरे काबिज़ नहीं
आसमां और ज़मीं
उस जहान में मैं  ढूंढ़ता हूँ
वो शकल जो मेरी हो।

यूं ही किसी क़ातिब ने
लिख दिया है नाम मेरा
इस जिस्म पर जो आज
मुझे ढाक कर के झूमता है।

खासियत ये रही इस दौर की
खाफगी कितनी भी रही
खला से ज़मी तक
हर ज़र्रा नायब सा है।

हर शक्ल एक सी है
बस नक्श बदलते रहे

नाम बदलते रहे तवारीख़ में।

~ सूफी बेनाम।



तवारीख़ - register ; खाफगी - anger; क़ातिब - scribe ; काबिज़ - in control ; ख़ासाक - trash

जवाब कभी नहीं मिलता

पर, कई बार मैं पूछता हूँ
खुद से,
कि आदत इतनी
खराब क्यूँ है मेरी ?

अहम् और
जीने की चाह
मुझे आगे कुरेदने से
रोकती है।

महज़ कुछ आदतें
काफी नहीं थीं,
मेरे अंदर, दवंद को
जगाने को पुख्ता नहीं थीं।

~ सूफी बेनाम


Friday, February 21, 2014

मुश्त-ए-खाक़

एक याकूत सा गुलाम है
मेरा मुश्त-ए-खाक़ इस जहां के
बेलकीर, बेगाने से सफ़र में
शौक-ए-रज़िया को ढूँढता है।

है मोहब्बत जज़्ब सिर्फ
हुकूमत वालों का और
इश्क़ है किया जाता ग़ुलामी में
बेगार बनकर।

न रही सल्तनतें
न रज़िया न शौक-ए-शमशीर
ये बदन में दौड़ता लहू
अब किस काम का है ?

हर रोज़ एक नये दर्द की
ओट लेकर खड़े हो जाते हैं
ए बेनज़ीर कुछ देर और जीना को
बहाना तो दे।

~ सूफी बेनाम





याकूत - Jamal ud din Yakut ( Slave of Razia Sultan) ; मुश्त-ए-खाक़ - Handful of dust/ human being ; बेनज़ीर - incomparable ; शौक-ए-रज़िया  - a woman who can enslave a man.

एक साड़ी में लपेट लिया

एक साड़ी में लपेट लिया
पूरी शाम को तुमने
हम सब बारी बारी से आते थे
तुम्हारे पास कभी छूने- चिपकने
कभी तुम्हारे स्पर्श को।

उधड़न जो तुम्हारे
ब्लाउज और बदन के बीच
से मिठास छलकाती  है
जज़्बात जगती है और  बेमर्म
मेरी नज़रों को चिकोटती रहती है।

नीचे से झलकते तुम्हारे
कागज़ी पाओं में लिपटी
नाज़ुक सी बिछिया, पायल
गले में कंचन, कुण्डल
और सुर्ख रंग का श्रृंगार।

ना जाने अब और क्या चाहती हो मुझसे ?

~ सूफी बेनाम



Tuesday, February 18, 2014

ऐसा देखा गया है

ऐसा देखा गया है
जब भी कोई अंजाना सा
नया मौसम, नया दर्द
उम्मीद में जगता है
तो फँस जाता है
रूंध के, बादलों में।

अराइशों के,
इस पतझड़ में,
किसी फितरती चाह
या उम्मीद को,
जब दो आँखें मिलती हैं
तो शबनम की कुछ बूँदें
मोती बनकर खिलती हैं
कुछ  सूख  जाती हैं,
या ढलक जाती हैं - टीस में।

कुछ जो संजो के रक्खी हैं,
सदफ़ - ए - तवक्क़ो में
मोती बनकर शायद कभी
किसीके आभूषण को
कबूल हों  ।

~ सूफी बेनाम




अराइशों - images ; सदफ़ - shell  ;  तवक्क़ो - expectation,hope

Saturday, February 15, 2014

जाने किसके साथ तुम रहती हो ?

जिसके साथ तुम रहती हो
वो कुछ कुछ मेरे जैसा है
जिसको चाहती हो दिलो जान से
और हर दिनों-दोपहर जिसके करीब
बीत रहे हैं हर मौसम
जो तुमको अच्छा लगता है
वो कुछ कुछ मेरे जैसा है।

कभी कहीं पर हम दोनों एक से थे
वो तुम्हारे साथ चला गया
मुझको भी एक बेनाम कि छत है।
मिलता नहीं है अब मुझसे वो
जो कुछ कुछ मेरे जैसा है
तुम्हारे प्यार में वो खोया है
जो कुछ कुछ मेरे जैसा है।

~ सूफी बेनाम






तरकश

मय के प्यालों की
बंद अलमारी के से
तलफ्फुज़ का सा
बदमस्त हसीन चेहरा।

तुम्हारे होंठ बड़े भी थे
कुछ कहने को
पर कान के बूंदों से
छनकती आवाज़
की ना मंज़ूरी पे रुके
झिझके और बिखर कर
मुस्कुरा दिए।

आँखों की तरकश में
जहाँ तने रहते थे
तीर काजल के
वहाँ पुतलियों की
कमानियां हताश किसी
ख्याल में खोयी हुई हैं।

उम्मीद है ये
मुस्कराहट बनी रहे
न सही मेरी आँखों को;
किसी के होठों को
तस्सली तो है।

~ सूफी बेनाम





तलफ्फुज़ - expression    ;बदमस्त - intoxicated

Thursday, February 13, 2014

वो कौन है, जिसे लोग, मेरे नाम से जानते हैं ?

अपनी हसरतों से अक्सर ही
मैं पूछता हूँ
वो कौन है, जिसे लोग
मेरे नाम से जानते हैं ?

कुछ जो आये भी करीब भी
इन अधूरे से जज़बातों के
एक बेनाम शक़्ल से मिल कर
लौट गये।

हर रोज़ गहरी हो रही है
हक़ीक़त और वज़ूद की दरार
न जाने किस ज़िक्र पे
ये भर पायेगी।

~ सूफी बेनाम