Sunday, May 1, 2016

सह भागिता गुलज़ार ~ तुमसे बात नहीं होती किसी दिन

तुमसे बात नहीं होती किसी दिन
तो आँखें मलते उठ धीरे से
दिन खामोश छूछे बर्तन को
रख अंदाज़ पानी से भरता हूँ

दो प्याली कट-चाय छान कर
बारी-बारी चुस्की लेता हूँ
चष्क झेंपता रहता हमसे यूं
जितने सिप लेता अपने प्याले से
उतना तुम-प्याले की कोर को चूमा करता हूँ

आना रात फिर ढल के ख़्वाबों में
 इजाबत  का सपना मीठा सा
रात फिर तकिए पे  सांसें पी लेना
कहना "कहो कैसे हो यार"

~ सूफ़ी बेनाम



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