Wednesday, April 24, 2013

सूफी बेनाम का एक कलाम



हर मोड़ पे ले रही  है तुम्हारा नाम ज़िन्दगी
फिर से हो रही है बदनाम ज़िन्दगी.

इस जिद से निकले थे तुम्हारा शब् हम तोड़ेंगे
तुमको ही ढूँढती है हर शाम ज़िन्दगी.

कोई तो कह रहा था मेरा सब्र झूठा है
ले यूं ही चल रही है तेरा नाम ज़िन्दगी??

ख़्वाबों में जी लेने दो कहीं जाग गए तो
तुम्हारे ही दर पे होगी बेनकाब ज़िन्दगी

जिस रात को हम बेखौफ बेदाग़ सोये थे
उस रात हो रही थी बदनाम ज़िन्दगी

थे तुमको छोड़ कर हम कुछ आगे आ गए
पर यह घुमावदार रास्ते फिर तुम तक पहुँच गए.

कोई जो चल रहा है ... कहीं पहुंच जाएगा
है रुकी रुकी सी, परेशान सी, इक आम ज़िन्दगी

कब पहूँचेंगे कहाँ  या यूं ही चलते जाना है ??
किसी की तो है ज़रूर गुनेहगार ज़िन्दगी .

मौजों से खेलते रहोगे या उस पार जाना है ??
या कह दो किनारों से है परेशान ज़िन्दगी .

कहते हैं दर्द इ दिल की कोई दवा नहीं...
ये मेरी मोहब्बत है कोई दुआ नहीं .

थी शबनम की वो बूँदें या कई ख्वाब टूटे से ??
जाने क्यूं थी उल्फात में भी बेकरार ज़िन्दगी..

आओ तुमको लिखें फिर पढ़ लिया करें
क्या जाने तावज्ज़ु क्या है बेक़रार बंदगी

ये तुम्हारा फरेब-ए-नज़र है या कोई हादसा ग़ज़ब
पाते हैं तुमको हर दम में बेदम हुए पड़े .

इस कायनात पर कोई  क्या इन्हिसार करे  .
फिर भी है मुकम्मल  बेशाम  ज़िन्दगी .

हैरान तो बहुत  हैं पर बेनाम क्या करे
चादर सी ओढ़े सो रही है आज  ज़िन्दगी.

हर मोड़ पे ले रही है तुम्हारा नाम ज़िन्दगी
है जल रही बेख़ौफ़ बेनाम ज़िन्दगी .

~ सूफी बेनाम 





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