Wednesday, April 24, 2013

आओ इस उम्र के दरख़्त के साए में बैठें हम तुम

आओ इस उम्र के दरख़्त के साए में बैठें हम तुम
ज़िन्दगी मेरी दराज़ में बंद है
और घडी बेफज़ूल  घूम रही है.
एक उम्र का पेड़ है  बादलों से लदा
मेरी खिड़की पे थोडा सा झुका.
रात चादर से लिपटी सोई है
और मन बेचैन सपनो के साथ खेल रहा है.

इस उम्र की पत्तियों की सरसराने की आवाज़
अकेले में ही सुने देती है.
कुछ हसीं ख्वाब है साले बेदर्द इतने
यादों की मिटटी पे निशाँ छोड़ गए हैं.
कभी गुज़रना इस राह तो थोडा रुकना
तुम्हारे साए से इस ज़मी को नमी मिलती है.

मेरे  स्याही से लादे शब्द कालिख नहीं हैं
ये खवाबों के बही खाते हैं
यहाँ सूद पे सूद चड़ता है
और हकीकत चाहे कितना भी क़र्ज़ चुकाए .
खवाबों का खाता बना रहता है
कभी मिटटी फिर खिली,
तो सारा आसमान खरीद लेंगे.

इस बात पर दर्द कभी न रक्स करे
की तुम तुम नहीं और हम हम नहीं रहे.
जो ज़िन्दा हैं , वोह ही तो हैं बदलते
साए में  तो रंग भी ढक जाते हैं.
येह तो मिटटी है कभी भी खिल जाती है
तुम अपनी मुस्कराहटों को बचा के रखना.

~ सूफी बेनाम

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