Thursday, August 29, 2013

नक्श


किसी बेलगाम ने उड़ते हुऐ,
उस बताल आसमान के करीब से,
एक बेदरेग नक्श बनाया है
इस असीम ज़मीन का।

यहाँ  हर तरफ दिशायें हैं,
मौसमों का ताना बाना है
और जिस्मानी दूरियों पे
मौका-परस्त समय बदलता है।

यहाँ लकीरों से ही
दीवारें, रास्ते और दरिया हैं
सुर्ख, सुरमई, फिरोज़ा, नीलमइ
सर-मस्त रंग-दावतें हैं यहाँ।

तुम्हारी गली को मैंने देखा
पर अजनबी निशान सा पाया
और वो खँडहर जहाँ हम मिलते थे
उनको पहचान न पाया।

किसी ने  ये नक्श सपनो सा बनाया है
वैसे ही जैसे हम अँगुलियों को फेर कर
रेत पे नाम लिखते घर बनाते रहे
और दुनिया को बच्चों की गेंद सा गोल समझते रहे।

~ सूफी बेनाम


बताल - mysterious lie, बेदरेग- haste and thoughtless.

Sunday, August 25, 2013

तसवीर

मैंने कई बार कोशिश की
यहाँ उल्फ़त का ज़िक्र न हो
गुलों की बनावट का नसीब
कुछ खिले, कुछ मुरझाते रहे

फिजा ही गुनेहगार रही
इन फूलों के मुरझाने की
मुद्दई दफ़न ही सही
ज़िन्दगी के निशां देते रहे.

रेगिस* में क्यों दफ़न रहे
आशार-ए-जश्न के गवाह?
फिज़ा की कोई कली इनके करीब
भी तो मुस्कराहट बिखेरे

वो तो रहम था
जुबां का दिल-ए-दर्द  पे
कि सवालों से उभर कर निकला
और जवाबों में बंद तसवीर ही रही.

~ सूफी बेनाम



* रेगिस - used as desert; *आशार-ए-जश्न - celebration of life, liveliness

Friday, August 9, 2013

फिर ….

वो लम्हा जो गुज़रते हुए
अफ़सानो पर ज़ाया न हुआ
बस आह बनकर रहता है

वो अफ़साना जो बिछड़ती हुई
ज़िन्दगी में सिमट न गया
एक याद बना देता है

वो ज़िन्दगी जो बिखरती हुई
ख्वाइश से रुखसार न हुई
एक दर्द बनकर खिलती है

वो दर्द जो कोरे कागज़ पर
कुछ स्याह दाग देकर के गया
बेलगाम बना देता है

यूं न बहो मेरे साथ
लम्हों को फिर रोक लेते है
और एक नया दर्द जागते हैं

~ सूफी बेनाम


Wednesday, August 7, 2013

बरसात का सूनापन

 आज कुछ काम करने का
मन नहीं है
ये बरसाती ख्वाब मेरी रूह को
मेरे जिस्म के बाहर खींच लाये हैं
एक बार फ़िर इसको
भीगने का मौका मिला है
वो मेरी जिस्मानी घुटन से
आज भर आज़ाद है
और एक बेनाम जिस्म
बे-जुम्बिश, निकम्मा पड़ा है
ये आंखें भी देखती हैं एकटक
आज़ाद दिल का मंज़र
मेरी रूह के पंख भीग गये हैं
क्यूं मेरा नूर मुझसे दूर
आज़ाद बरसात में भीग रहा है
क्यूं मै नहीं भीग पाया ?
आज कुछ काम करने का
मन नहीं है
क्या बैठा रहूँ
यूं ही बे-रौनक, तनहा ?


~ सूफी बेनाम


निशान

तुम अपने  कुछ निशान
मेरे आस पास छोड़ गयी हो
कल रात का एहसास तुम्हारा
अब भी मेरे बदन पर
अपना अधिकार जताए रहता है
कुछ अँगड़ाईयां तो बिखेरी थीं
जब रौशनी ने आँखों को कुरेद था
और मै नहाया भी पर
जहाँ भी रगड़ता हूँ इस जिस्म को
पानी से बुझाने,
तेरे बदन की चाह महकती है
और ज़्यादा जलाती है,
सपने दिखाती है
एक महक रह गयी है जो
साथ तुम्हारे पैदा हुई थी
रात में चुम्बन पे जो किये थे वादे
वो दिन तक क्यों नहीं चल के आते ?
मेरी ख़्वाबों की डाली पे कलियाँ
लदी तो हैं, पर महकती नहीं
लगता है तेरे ख्वाब के भरोसे ने
मेरे बागीचे को
रात की रानी से सजाया है
लगता है रात फिर महकेगी
जब तुम करीब आओगे।

~ सूफी बेनाम


उधेड़-बुन

शब्दों की उधेड़-बुन चल रही है
लच्छा -लच्छा बन के अंदाज़ उलझे हैं
दिमाग में अजीब सा आवारापन है
तसवीरें कौंधती रहती हैं एक रील बनकर

कभी गुलज़ार की आवाज़ का फ़रेब
कभी इक़बाल की सॊच का अंदाज़
कभी ग़ालिब की बयां -ए -जिंदगानी
कभी तुम्हारे नफसानी चुम्बन का स्वाद

इस मजलिस में सुनने वालों के
ख्याल की पसंद पहुँच और पैमाना
कभी दूर से कौंधती एक मीठी आवाज़
इरशाद-इरशाद

मानो मेरे पीछे से कोई कुछ कहता है
और मै तुम्हारी आँखों में देख के लिखता रहता हूँ
कुछ खुद को भुलाने के लिए
कुछ तुम्हारे बदन तक पहुँचने के लिए

हर वक़्त यह एहसास भी रहता है
की ना तुम कहीं हो, ना मै कहीं
ना पीछे कोई कहने वाला
ना कोई मजलिस ना सुननेवाले

बस एक रूहानी जस्बा है
जो शब्दॊ को कात कर कतारों में बिठाता है
और फिर कतारों को बुनकर
एक चददर की पहचान देता है

सुनने वाले दाम लगाते हैं
कुछ खरीद पाने की हैसियत रखते हैं
कुछ बस छू कर वाह वाह करते हैं
कभी दूर किसी की नज़र दूसरी चादर को बढती है
एक पन्ना पलटकर।

~ सूफी बेनाम