Friday, October 25, 2013

सहर



मूंह-अँधेरे मैंने एक
चिराग जलाया था
कुछ देर ख्याल करने को
कि दिन गुज़रकर क्या करेगा।

जब सुबह को अफरोज़ करने
रश्मियाँ आगे बढीं,
तो, घरों में कमरों में,
अँधेरा बढ़ता रहा।
फिर एक पूरा दिन
लग गया है इसको खींच कर
अपने कमरे को शाम तक
सजाने में, चमकाने में।

उम्मीद रहती है कि
समझ तो पाऊँ कि
किस आज़ादी की चाहत को,
या मेरे घर-आंगन की खबर-खुशबू देने
खुदा को, हर रोज़, ये उजाले,
असमान में बिखरकर
सुबह कर देते हैं।

~ सूफी बेनाम


Sunday, October 13, 2013

ये कातिल मेरी बाहों में .......

बेशौक तो नहीं पले
ये कातिल मेरी बाहों में
सीने के, आस्तीनों के,
बेअंजाम तो नहीं ये कारवां ?

कौन समझा  है
कि कातिलों के इस बाज़ार को
करार नहीं
ए दिलबर ?

कौन  कहता है
की खंजर, चाबुक, बिंदिया, मेहन्दी
के जुल्म, अदाये-शौक
मेरे जिस्म पे चल कर पूरे हुए ?

एक ज़माने से जुटा कर अपने
कातिलों का साज और सामान
हमने इस मोहोबते-रस्म की
दुआ मांगी थी।

ख्वाइशों के नाज़ -ए -नाखूने बहार
हुए आर-पार, कई बार
रिसते ज़ख्मों से भरने की उम्मीद
इस जिस्म की शहवत हज़ार।

ये नासमझ दिल रुकता नहीं था
दर्द-ए - गूंज की उम्मीद को
ये बेथक, बे-इन्तेहां  कातिल
आते ही रहे।

कभी एहसास न कोई
ज़िन्दगी की पहचान बना ?
क्यों बने  वो कातिल वो खंजर
बस यादों के निशां ?

आज फिर हम बेसब्र हैं
एक तीखी चुभन को
जो रूहानी अब्र को जझकोर कर
मेरे जिस्म को तोड़ दे ?

तुम ये बाज़ार सजाये रखना
सुना है नये दौर के
कुछ नये कातिल
पैनेले हथियार ले कर आयेंगे।

ये मोल भाव का रिवाज़
चलता ही रहे।

~ सूफी बेनाम



Friday, October 11, 2013

…………. ऐ लखते जिगर

कोई एलन न कर, ऐ लखते जिगर
यहाँ इकरार के कुछ, लम्हे बाकि हैं।

नहीं पता कि कब बिछड गये थे हम
बड़ते गये किसी ज़िद्द में या रस्ते बदल गये।

चलते जाना है कि कुछ इंतज़ार करें ?
पनाह राहों में मिलती है बसेरॊन के बीच।

किस होड़ में हो तुम, खबर नहीं हमें,
मुनासिब है परेशां हो जज़्बे मक़नातीसी से ।

चाह नहीं किसी से मिलूँ इस कबुतरखाने में
यहाँ उड़ने को हर वक़्त बेताब परिंदे हैं।

बात जिरह तक होती तो यक़ीनन जीत लेते हम
अब ऐतबार किसी और दुनियां में जीतेंगे।

बिखरने का गम नहीं, ए महोब्बत ये समझो
यहाँ पर सिर्फ घात पे विश्वास है भरोसा करने को।

हर उम्मीद पे रुकते थे कुछ देर तक, पहले हम
अब मूँद आँखों में ज़िन्दगी बेहतर सुलझती है।

कही रुकना पहुंचना तो इतना बतला देना
जाने किस-किस खबर को अब भी सांसें तरसती हैं।

है तड़प यूं नहीं कि खंजर दूर तक घोंपा
मालूम तो हो मेरी सांसो से किस-किस को बेचैनी है।

थोड़ा परेशां रहेंगे कुछ देर यहाँ चाहने वाले
चुनिन्दा यादों में जीना मुझे मंज़ूर ज्यादा है।

बात ख़त्म ना हो पायेगी गर लिखता ही जाऊँगा
ग़ज़ब ये हादसा है इसीमे समेट दे मुझको।

~  सूफी बेनाम




जज़्बे मक़नातीसी - magnetic attraction.

Tuesday, October 8, 2013

कि ज़िन्दा हम भी हैं

इतने हलके में न लो,
कि ज़िन्दा हम भी हैं
थोड़ी रफ़्तार तो बदलो,
कि बेवक्त हम भी हैं।

निकालें रूह से रिश्ता,
हयात की तर्ज़ुमानी को
रहे नहीं वाबस्त माज़ी से,
कि गुनहगार हम भी हैं।

बना लें जुनू सा किसको,
बादे-मुखाल्फ़ि की चाहत है
बचश्मेतर सही पर भटके नहीं
किसी सलाफ़ के वारिस हम भी हैं।

तेरी आँखों से हो रिश्ता
मेरी नज़मो के सुरमे का
नर्म ज़ेरे-हिरासत की महक
को बेक़रार  हम  भी हैं।


~ सूफी बेनाम



बादे-मुखाल्फ़ि -  wind against the direction of movement sp of a boat, वाबस्त - attached,  माज़ी - past, बचश्मेतर - eyes drowned in tears, सलाफ़ - pious muslim sunni ancestors who lived within 400 years of prophet mohd., ज़ेरे-हिरासत - captive in a deep embrace, तर्ज़ुमानी - translation, हयात - life.

Monday, October 7, 2013

नज़्म

मैंने अपने दो कच्चे मिसरों को
तुम्हारी नज़्म के साथ
डायरी के पन्नों में लपेटकर
साथ सुला दिया है।

बुक - मार्क भी नहीं लगाया है।

सिमटे सहमे वो कच्चे मिसरे
तुम्हारे अंदाज़ खोज ही लेंगे
एक डिक्शनरी भी साथ रख दी है
गर बात आगे बड़ी तो खुद बा खुद समझ लेंगे

उम्मीद है रात महफ़िल
तो सजी ही होगी
और हमारे सवालों को
एक नज़्म ने छुपाया होगा।

~ सूफी बेनाम


सौदा

लम्हों की भारी किश्तों पर
कुछ और ज़र्रे बहके होंगे
कुछ कीमतें टूटी होंगी रिश्तों की
सोचता हूँ  आज फिर बाज़ार चलें।

सुर्ख-फरेब की झिलमिलाती दुकानें
के महंगे-सस्ते सौदों पर
छोटी-बड़ी कीमतें देकर
सब बिकने को तो आये हैं।

~ सूफी बेनाम


शौक

मेरी रिहम को
इतने करीब से देखा न कर ए दिलबर
ये ज़ख्म शौक के इस जानिब पाल के रक्खे हैं
कोई रिज़ालत नहीं है यहाँ
ये ज़िन्दगी को अंजाम की दुआ देते हैं।

उसे यूं हयात का मर्ज़ हुआ
जो रिस्ता रहा लबो-लहजा बनकर
वफ़ा तो फुर्सत में नब्ज़-ए-सबक बनी
हमने भी उसे प्यास पे बुझने ना दिया
उल्फत से जलायेंगे उसे पानी बनकर।

~ सूफी बेनाम

रिहम - womb;  रिज़ालत - low-deeds; जानिब - side; हयात - life; लबो लहजा - articulation, way of speaking.


Thursday, October 3, 2013

सौदा

लम्हों की भारी किश्तों पर
कुछ और ज़र्रे बहके होंगे
कुछ कीमतें टूटी होंगी रिश्तों की
सोचता हूँ  आज फिर बाज़ार चलें।

सुर्ख-फरेब की झिलमिलाती दुकानें
के महंगे-सस्ते सौदों पर
छोटी-बड़ी कीमतें देकर
सब बिकने को तो आये हैं।

~ सूफी बेनाम


नज़्म

अब तो भीग चुके
बरसात को
बादलों के गरजने
के पहले।

जाने क्या छूटता 
सा पीछे रहा 
एक  रोज़ जो आसमा 
था पहले। 

अजब एक इकरार को
ज़िन्दगी आगे बड़ी
जहाँ सब कुछ थमा-थमा
था पहले।

मेरे दिल के निशां 
महसूस तो कर 
ज़िन्दगी में तर्जुमा आने 
के पहले।

कुछ मुनासिब ना सही
एक नज़्म तो हो
और नये रास्ते समझ आने
के पहले।

~ सूफी बेनाम