Friday, October 31, 2014

शराब के रंग

बगैर समझे, शराब का माबदा
पीने का अंजाम गलत होता है
हर शराब का दोस्तों
नशा अलग-अलग होता है।

एक कुछ देर तक चलती है
एक छट चढ़ के उतर आती है
कोई सुरूर सा देती है
कोई महज़ बेक़रार छोड़ जाती है।

अब इतना जी चुका हूँ  कि
हर नशे की कहानी जानता हूँ।
किस फ़िज़ा में पैदा हुई- छनि
हर अंगूरी कहानी पहचानता हूँ।

फ़िक्र मुझको बस अब मेरी है
नशा महज़ बोतल में बंद
रंगून में मिलता नहीं
मेरे लिये।

~ सूफी बेनाम



माबदा - origin

आम ज़िन्दगी में कविता

सुबह की नींद को गर्म लिहाफ
अच्छा लगता है
दिन की खुश्क दौड़ में एक मुस्कराहट
अच्छी लगती है
शाम की हररश को बेख़्याल थका मन
अच्छा लगता है।

अकेले जूझते ख्याल का तजवीज़ बनना
अच्छा लगता है
शायर के अल्फाज़ो का इस्तिदा बनना
अच्छा लगता है
किसी पुकार का आज़ान में बदलना
अच्छा लगता है।

~ सूफी बेनाम




तजवीज़ - contemplation इस्तिदा - invocation; आज़ान - call

हालत-ए-तहव्वुर

हम रुके रहते हैं
इत्मिनान से, खुद बनकर
जब आती है वो
तो ज़िन्दगी ले के आती है।

जब जाती है वो तो
खुद के साथ को
तन्हा क्यों कहें ?
समझो इंतज़ार सा छोड़ के जाती है।

दर्द क्या है तड़प क्यूँ है
तुम ही समझो।

~ सूफी बेनाम

तहव्वुर - boldness


Monday, October 27, 2014

सुरूर

कई बार
मुझे
बे-लिखे पन्ने मिलते हैं
कागज़ों के गट्ठरों में दबे हुए
कोरे से दिखते हैं
या
शायद इनके हक़ में
कुछ ऐसा है जो मैं
ख़्याल में नहीं उतार पाया
जो दब हुआ शायद अब भी है
मायूस किसी कोने में
जो अब झिझकता है
ज़हन पे उभरने से
पर सुरूर सा देता है ।

~ सूफी बेनाम


आज मेरे राम घर लौट आयेँगे

घर घर दिया रोली रंगोली है
नये कपड़े नयी सी खुशबू
नया सा मौसम है
..........
आज मेरे राम घर लौट आयेँगे।

~ सूफी बेनाम


Saturday, October 25, 2014

पकी -मिट्टी के दिये

कुछ पल ही लगे थे
भीगी गुंथी हुई
कच्ची-मिट्टी को
कुम्हार के हाथ कि
सुगढ़-सुनारी अँगुलियों ने
चाक की अथक-बेरुक रफ़्तार से
कुछ कच्चे दिये बनाये थे।

नीम की ठण्डी छाओं में
सुखाया था इनको
कुछ दिये वहीँ पे टूटे आशिक़ से
बस पसरे और बिखर गये।
कुछ दिये, शायर, हम से थे
पकने को तैयार बहुत।
हयात की तपिश थी
शायर दिये पुख्ता हुऐ।

आज शाम कुछ देर को
नन्हीं सी लौ को रिझाने को
तेल और बाती से हम
सजाये जायेंगे।
घर का हर अँधेरा कोना
छत और तुलसी की छाओं
यहाँ कुछ देर को जलेंगे अपने हिस्से में
तुम्हारी दीवाली मानाने को।

हम जले हुऐ चिराग की मिट्टी
किसी की भी दीवाली को
दोबारा काम नहीं आती।
इस पके हुऐ पुख्ता बदन को
मिट्टी में मिलाना
सदियों की मशक्कत है।
किसी एक दिन को इतना रोशन किया
कि सब दिन इंतज़ार में निकल गये।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, October 22, 2014

अंगूर के दाने

अंगूर  के आकर्षक रंग-बिरंगे  दाने 
बेस्वाद सी बाहरी खाल में दबी 
ग़ज़ब सी मिठास-भरा रसीला गूदा 
दांत से दबाया तो रस ही रस था। 

थोड़ा और चबाया, चखा तो 
ज़ायके की खोज  बीज तक पहुंची 
बीज था बेस्वाद सा  
या मैं सवाब नहीं समझ पाया। 

~ सूफी बेनाम



Thursday, October 16, 2014

सुकून -ए -क़लब

गर मर्ज़ सा है अंदाज़ शोखे ज़िन्दगी का
है कुछ देर को ही उफनना-तड़पना इसका
फिर जाने कैसे समझूँ  बेमर्ज़ क्या है यहाँ
इस मर्ज़-ए -लिबास में हैं कैद जबतक।

ये इकरार में तकरार का निखरता खेल कैसे
है दोस्ती में दुश्मन के जिस्म की मैल कैसे
समझना चाहता हूँ रिश्तों में दबी ज़रूरतों को
तफ़री लेती हैं चाहतें करवट बदल -बदल के।

ए सफ़ीर! है शुमार की हदद में सितम का आलम यहाँ
पर बेइन्तहां नशीले है होंठों पे रंग यहाँ कातिलों के
बेमर्म सा शोबादाह है, लम्स की फितरत
सुकून-ए-क़ल्ब है महज़ अब सिलवटों में।

~ सूफी बेनाम




शोबादाह - mire-able; शोखी - wantonness ;  सफ़ीर - ambassador; सुकून-ए-क़ल्ब - peace of heart. 

Thursday, October 9, 2014

जैसे कोई पुराना घर हो

वो
अचानक ऐसे
मिली थी मुझसे जैसे
सालों बाद कोई
अपने पुराने घर को
देख कर कुछ देर
रुक गया हो।

कुछ
पोशीदा सी नज़रें
ऐसे टिकी थीं मुझपे
और ओट ले रहीं थीं
जैसे
दरवाज़ा किसी दीवार पर
जा टिका हो।

मैं भी
बेदम सा रुका रहा
जैसे
हो बोझल सा कोई
सूना कमरा
धूल की चादर में
लिपटा हुआ।

आज
हाथ बहुत ही
खाली थे
जैसे
यादों की कड़ियों में
न तारिख
और न पता हो घर का।

वो
रुकी नहीं या
चली गयी।
आयी भी थी
ये मालूम नहीं
बस एहसास
महज़ कुछ ऐसा था।

~ सूफी बेनाम





Wednesday, October 8, 2014

इमली -कोठी

मुनासिब नहीं था लौटना उसका
पर वजूद की खोज इब्तिदा से इन्तेहाँ तक थी।
उसकी हसरत -ज़दा नज़रों में तड़प थी,
शायद जीने का करीना जानती थी वो।

न जाने क्यूँ एक बार के लिए ही सही,
अपने भूले-गुज़रे  घर ले जाना चाहती थी वो।
मुझे दिखाना चाहती थी बचपन अपना
या खोए गुज़िश्ता से मिलाना चाहती थी वो।

और गया था मैं, यादों के शहर - हज़ारीबाग़
शायद जहाँ का आसमां तसव्वुर की हद छूता था।
जहाँ की तंग,  झिझकती, गुमसुम गालियां
तालाब के किनारे कच्चे घरों तक ही पहुँचती थी।

कहानियां जहां राजा के महल और शिकारगाह की
शहर के कोने में , जंगल की कछार पर बिखरी थीं।
सहमे -उजड़े से घरोंदों के पेड़ों से ढके चेहरे
इन सबको अपने दोस्तों का घर बताती थी वो।

इमली -कोठी की सड़कें तब से कच्ची ही रहीं
जहाँ के इंसान समय पे है नहीं फ़िरते - बदलते
गैर- मुत्ताबद्दल होती है किस्मत उन बसेरों की
शायद इतना ही कहना चाहता था ये सफर मेरा।

साथ उसके रहा और देखा - महसूस किया
शायद उसके बचपन को था मैं कहीं छू सा रहा।
या महोब्बत आइन्दा मुक़ाम से, बिसरी दीवारों से मिलने आयी थी
शायद वक़्त ठहरा हुआ था और गुज़र गयी थी वो।

……  फिर वो सफर भर बेहिस सी रही।

~ सूफी बेनाम

इब्तिदा - begining ; इन्तेहाँ - end ;  गुज़िश्ता - past ; गैर- मुत्ताबद्दल - unchanged ; आइन्दा- future