Sunday, April 27, 2014

शरारती नज़्म

वो  कहती ही नहीं थी
जो मैं उससे कई बार
सुन्ना चाहता था
उसकी पहचान
दर्ज़ कराना चाहता था।

लम्बी मुस्कराहटें
खर्च हुई हर बार
- कुछ ज़ाहिर ना हुआ
पर ये जज़बात उसको
बेचैन ज़रूर करते रहे

अधलिखा सा आज मैंने उसको
फिर फिर गुनगुनाया
खोखला- अधूरा  कर गयी थी वो।
इसलिए आज उस नज़्म से
मैंने दोस्ती तोड़ दी।

~ सूफी बेनाम

(This is Anjora's photograph. We are great friends. The photo is representative of a childlike innocence of poetry that I cannot understand)

Monday, April 21, 2014

algebra सी तुम

तुम बिलकुल algebra सी लगती हो
जिसे 8th में मैं पढ़ नहीं पाया,
जहाँ मेरी पिछले सालों की पढ़ाई
पूरी fail हो जाती है
आज तक उस x की value ढूंढता हूँ
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो

equation बदलती गयी
तुम धीरे -धीरे  bionomial बानी
फिर bionomial से trinomial हो गयी
इस x  के आगे y और z  भी लग गये हैं।
मेरी गण्डित अब भी कोशिश में है
की कुछ तो कभी सुलझेगा।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो।

गण्डित के सुख़नवरों ने
कुछ theorem बनाये हैं।
कुछ formulae हैं तुम्हें solve करने के।
हर बार कुंजी से रट के जाता हूँ
हर बार apply नहीं कर पाता।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो।

तुम्हारी गण्डित में
minus minus मिलके plus होता है
plus plus भी plus होता  है
अजब बिठाया है हिसाब तुमने
अब कुछ तो solve करवाओ
सिर्फ सवाल बन के न रह जाओ
अच्छा x  की value तो बताओ।

सोचा था इस game को
calculus से निबटाऊंगा
differentiation के बाद इंटीग्रेशन बिठाऊंगा
पर इतने साल नहीं हैं पास मेरे
maths से मन ऊब चूका है।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो
अच्छा x  की value तो बताओ।

~ सूफी बेनाम





Thursday, April 10, 2014

एक ख्याल, बुनदा - बुनदा सा

कैसे रहा ज़ुल्फ़ की
तहरीर में गुम
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।
कभी - कभी झांकता है
नज़र आता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

काक के कोहराम सी
बेसाध लटें
उलझी हुई तश्बीहों को बुन
नज़र को मूंद चुकी थीं लेकिन
फिर भी कानों में
छनकता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

सांसो की स्याही को
जिस्म की दवात पर
बार-बार बे-लिखे डुबोया
बेबसी में कुछ ढूंढने को
पलकों के कोरेपन पे
अनकही कुछ गूंथ रहा था
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

तेरी ज़ुल्फ़ों की
भटकी हुई गलियाँ
मेरे जिस्म के
भूले हुए दयरो से
गुज़रा करती हैं
इन गलियों के बेसाध सायों में
छनकता है एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

~ सूफी बेनाम


Monday, April 7, 2014

मेरी ! सिर्फ़ मेरी !

कुछ चीज़ें हैं
जो मेरी हैं  !
सिर्फ़ मेरी !
जैसे मेरा चाय का गिलास
मेरा तकिया
मेरा पेन
मेरी टेबल-कुर्सी घर
मेरी फैवरिट टी-शर्ट
सुबह का पहर,
और पानी का पाइप
जो चीज़ें सिर्फ़  मेरी हैं
मूक हैं
जड़ हैं।
शायद मेरा होने के लिए
ये ज़रूरी है।

~ सूफी बेनाम