Friday, July 28, 2017

कभी तुम साथ मेरे घर तो आना

1222/1222/122

कभी तुम साथ मेरे घर तो आना
हमारा घर भी तुमको घर लगेगा

अगर आओगे तुम कमरे में भीतर
तो शायर-मन, तुमे तलघर लगेगा

जहाँ है खाट औ उलझा सा बिस्तर
वहीं पे फिर ग़ज़ल दफ्तर लगेगा

पता कागज़ को रहता है तुमारा
नशा बस स्याही को पीकर लगेगा

सुनो तुम बैठना आराम करवट
अभी किस्सों में ये दिलतर लगेगा

अगरचे हाथ मेरा छू गया हो
तो शायद तुम को थोड़ा डर लगेगा

ये आलम आ ही जाता है इनायत
यूँ मौका ज़िन्दगी कमतर लगेगा

तग़ाफ़ुल शेर पे है शेर कहना
उफनता चाह का तेवर लगेगा

मुक़र्रर औ मुक़र्रर दाद रौनक
रवानी फासला खोकर लगेगा

तसव्वुर में कई जो ख्वाइशें है
ये अबतक उन से तो हटकर लगेगा

अगरचे गुदगुदी तुमने करी तो
चुनाँचे तब यहाँ बिस्तर लगेगा

~ सूफ़ी बेनाम



Wednesday, July 26, 2017

उमर है................


1222-1222-1222-1222

कहीं से भी, हमें आवाज़ अब ,आती नहीं उसकी
हां शायद हम भी, उसको हर जगह, ढूँढा नहीं करते

है किसमत ये, कि रस्ते में हैं टकराते, उसी से हम
उमर है, रोज़ किसमत भी तो, अजमाया नहीं करते

ग़ज़ल के, राबते तो आज भी, इसरार करते हैं
मगर हम, अब नयी उम्मीद को, ज़ाया नहीं करते


~ सूफ़ी बेनाम

Monday, July 24, 2017

खुद न बनना रासता तुम, राह बनके देखना

२१२२-२१२२-२१२२-२१२ 

दिन पिघलते आसमां में , रंग भरके देखना
साथ में हमसाज़ के, हर शाम ढलते देखना

मंज़िलों का शौक रखके, दूर तक चल तो सही
रासते हों तंग, तो संग तेज़ चलके देखना

यार की दिलदारियाँ, दमभर निभाना पर सुनो
खुद न बनना रासता तुम, राह बनके देखना

गर शुआओं पे, हो उसकी, दिल की धड़कन महरबां
तो सुनो, उस आँख का काजल संभलके देखना

जिन के लब हों राज़दानी उनसे ही मिल ते रहो
आरज़ू जिसकी दराती, उनसे कटके देखना

हाय! ये तन्हाईयाँ, रहती सभी बेनाम क्यों
कर उमर को आशना, खुद तू पलटते देखना 

~ सूफ़ी बेनाम


 


Friday, July 21, 2017

हमें अन्दाज़ कुछ तो था, कि हम उल्लू के पट्ठे हैं

नकाम-ए-इश्क़ को, हरेक क्यों, लगता पराया है
हमें जब भी मनाया, आप ने, हंस के मनाया है

जलेंगे ही, अगरचे आग से खेलोगे, ज़िन्दा हम
लपट की चाहतों में, जो भी आया, मर के आया है

बड़ी डिग्री है हासिल, इश्क़ में, जान-ए-तलब तुमको
हमें तो, प्यार की सरकार ने, अनपढ़ बताया है

फकत नाकामियों का इल्म तो, उम्र-ए-तकाज़ा था
इसी के दरमियाँ ही, खुद को भी बच्चा बनाया है

हमें अन्दाज़ कुछ तो था, कि हम उल्लू के पट्ठे हैं
मगर इस सच को, रह-रह आपने, अक्सर जताया है

~ सूफ़ी बेनाम



Saturday, July 15, 2017

सभी को लग रहा बरसात है मौसम जवानी का

वो किलकारी, खुशी की चीखता, हंस्ता हुआ बचपन
पहल थी मौसमों की, उस की गोदी सींचता बचपन

है सृष्टी माँ की ममतायी झलक में, आज भी कायम
कभी है सर्द का मौसम, कभी वो बूंद का बचपन

सभी को लग रहा बरसात है मौसम जवानी का
मगर हर बूंद से खिलवाड़ करता, खेलता बचपन

उमर की बदलियों में सूखने लग जाते हैँ, तन-मन
बहाना कागज़ी इक नाव, बह कर डूबता बचपन

ज़रा मिलने चले आओ, कभी तो मौसम-ए-सावन
कि तुम से भीग कर, संग सूखना है चाहता बचपन

फ़कत मिट्टी में तेरी बीज जो हमने भुलाये हैँ
उनें मकरंद से मोती करो या कोपला बचपन

कि तुम संग भीगने से है लिये ये, जिस्म सौंधापन
लिये कुछ बूंद के चिलमन, हुआ सागर, डुबा बचपन

- सूफी बेनाम



क्या कर लोगे आगे जा कर

नाम अधूरा तेरा है पर
मेरी स्याही लिखती बहकर

कब थकता है रुकता है कब
जो जलता है अपने भीतर

अन्दर जब सोता फूटेगा
पीछे मत हटना घबराकर

सब कुछ फैला-फैला सा है
दिन जब बीत गया है थक कर

गर बादल फूट के बरसे तो
मुझमे घर करना चिपकाकर

गर दोस्त पुराना मिल जाये
बाहों को भरना फैलाकर

तुम आते हो मुझसे मिलने
मैं बिखरा हूँ मन के अन्दर

वक्त नहीं है पल्टा पीछे
क्या कर लोगे आगे जा कर

राधा की कनचन काया में
ज़िन्दा मीरा सी वो लुटकर

- सूफी बेनाम



Thursday, July 13, 2017

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

लिखावट एक से, एक नहीं बनती हैं भाषायें
न ही उनको व्यकारण की परिधी बांधती है
शब्दों के समागम और उनसे उमड़ते मयार भी
अपनी कोहराई कालपनाओं में रास्ते ढूंढती हैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम लिखती हो तो ज्ञान का आभास होता है
अज्ञानता की निशानी हैं भाषायें, मेरे लिये पर
तुम अपनी हिन्दी में भी मुस्कराती रहती हो
जगाती हजारों व्यंग वो, मेरे भीतर ही भीतर

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

ख्याल पका लाती है हरेक रचना तुमहारी
हूँ अनभिग्ज्ञ, अनुठापन अक्सर ढूँढता मैं
विदित नहीं हमको कि ये चेतना क्या है
तुम्हारे रीत और काल की समानता क्या है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम जब लिखती हो तो तुम सम्पूर्ण होती
शब्द दिखाते हैं पैबंद मेरे आधूरेपन पर
काव्य में बहते हर रोज़ देखा है तुमको
छन्द में कुछ मात्राओं पे हर पल संभलता मैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भावनाओं के पर ले, पहुँच से दूर जा उडी हैं
स्वयम की परिधी ढूंडती भाषाई-अभिलाषायें
पीछे पलट जब कभी देखता हूँ अपने लिखे को
पहचानत नहीं मैं अपने चहरे, अपनी परिभाषायें

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भाषा-भावनाओं का अनुवाद नहीं मेरे लिये
अर्ध-चेतन होकर मनकी तरंगें बर्गलाती हैं
शुष्क कागज़ पर लिखा निढाल सूक्ष्म मेरा
मेरे बदलाव पर, समझ के आघात बचाता है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

~ सूफी बेनाम



आओ ज़रा ज़रा सा तो हम तुम मिला करें

वज़्न--221 2121 1221 212
गिरह :
आओ ज़रा ज़रा सा तो हम तुम मिला करें
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पडे
मतला :
सब लूटने लगे थे कि दानी निकल पडे
मजबूरियों के साथ जवानी निकल पडे

थोड़ा कुरेद लो जो भी नम सा मिला करे
शायद किसी बूढे से जवानी निकल पडे

तुम बेमिसाल नाज़ हो, बेहद हसीन हो
सब से मिला करो कि रवानी निकल पडे

वो कैद कर के ले गयी दो पल हयात से
शायद वही थे जी गये फानी निकल पडे

वो तेज़ तो बहुत है, मगर है शरीफ वो
ये सोचते ही आँख से पानी निकल पडे

हम आप के करीब भी आये थे इस लिये
कि शेर दो हों साथ तो, जानी, निकल पडे

इक शेर तुम कहो तो, कभी शेर हम कहे
इन दूरियों में रात सुहानी निकल पडे

न मुमकिनी की बात न, मुमकिन किया करें
बेनाम की सफा कि कहानी निकल पडे

- सूफी बेनाम

Wednesday, July 5, 2017

बन काव्य खिल जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब मन-कानन में कूजन है, नव रस है
मन संवाद की झलकी भरो
बन काव्य खिल जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब डालों पे, नव पल्लव की चादर है
निगाहों में लिये कोहराम
वसंत श्रृंगार को आवो

प्रस्तावित ही सही पर
अब निद्रा को बोध मंद स्पर्शों का है
चलो शीत की ओढ़न बनो
रतिज स्वप्न-प्रबोध हो जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब अज्ञ-ज्वार से धुलकर मन-भू उर्वर है
जगो तृष्णा, जलो मुझमें
लावण्य प्रतिकार बन आवो


~ सूफ़ी बेनाम

वजह इस दरमियाँ जो इश्क़ है, आदाब मेरा है

महकती है जो तनहाई करार -ए -दिल की बाहों में
लिये चहरा किसी का हो, मगर असबाब मेरा है।

हज़ारों तन बदन मिलते हैं, लाखों बार बिछड़े भी
वजह इस दरमियाँ जो इश्क़ है, आदाब मेरा है।

बना करते हैं जब रिश्ते, गज़ब लाते हैं गहराई
मगर तुम सांस लेती हो जहाँ, पायाब मेरा है।

तुम्हारी शोखियाँ हर बार जो, बारिश में भीगी थीं
सुनो हर बूँद की, उस कैफ़ियत में, ताब मेरा है।

फक़त रानाइयो में संग तेरे जो भी था, वो हो
नसों में जो नशा बसता है, वो शादाब मेरा है।

बहुत अहमक़, अनाड़ी है, जो नामो-दम पे जीता है
हमेशा शाद है, बेनाम वो, बेताब मेरा है।

मतला :
फ़ना तक सूफ़ियत जो जी गया, अलक़ाब मेरा है
हज़ारों रात की आवारगी, महताब, मेरा है

अलक़ाब - title, असबाब - cause/ reason , आदाब - salutation/etiquette, पायाब - shallow, ताब - heat/power/lusture, शादाब - youth, शाद - cheerful













Monday, July 3, 2017

जाने बेनाम वो किस किस को बनाने आए

वज़्न--2122 1122 1122 22
काफ़िया—आने, रदीफ़ ---आए

जाने बेनाम वो किस किस को बनाने आए
जब भी आए वो भटकने के बहाने आए

नाम औ शक्ल की पहचान को मिटा कर अकसर
हमसे हर किस्म के रिश्ते वो निभाने आए

हमने हर ज़ख्म को ग़ज़लों को दिखा रक्खा है
मुस्कराहट से अदावत वो बढ़ाने आए

वो नहीं और सही, और से बहतर कोई
इस दिलासे के बहाने वो पटाने आए

मेरे हर रोम में उस याद की रिम झिम बारिश
खुद थे भीगे वो, जबर हमको भिगाने आए

सूफ़ियत और ये मजनून सी हालत उनकी
कौन समझाए ये मुश्ताक़ ज़माने आए

~ सूफ़ी बेनाम





जो रस्ता जंगल से आता

उस रस्ते तू मिलता क्यों है

जो रस्ता जंगल से आता
घोर अंधेरे से ढ़क जाता
निज रच आलम में खोया तू
दिन रातों में मग्न अकेला

तू मुझको मिल जाता क्यों है

क्रमशाः







वेसाक पूर्णिमा

वेसाक पूर्णिमा

ज़रा छत पे आओ
मैं कुछ देर
चाँद की गोलाइयों को
उतारकर
तुम्हारे जिस्म पे रेंगूं
मद से लदा हुआ हूँ
आज चांदनी में
घुला हुआ हूँ।


~ सूफ़ी





कभी जब पढ़ता हूँ किताब को, तो किताब मुझको भी पढ़ती है

साथ सोते हैं असाध रातों तक
मेरे तोशक पर आहें भर्ती है
उससे संभालती नहीं है अंगड़ाई
हमको वो निढाल करती है
सीखना चाहता हूँ दुनिया से
तजुर्बेकार हमको लगती है
जिनको तरसती हैं मेरी आहें
अनुभव खुद में छिपा रखती है
कभी जब पढ़ता हूँ किताब को
तो किताब मुझको भी पढ़ती है।
पकड़ती है सिली-जिल्द से मुझे
फ़िर क्रमांकतार से पलटती है
आँख में कौंधते मात्रा और रेफ
भीतरी गूंज-सार तक बदलती है
बंद करता हूँ जब अधूरा उसको
पृष्ठ स्मृति पर हमेशा मिलती है
मैं नहीं चुनता इक्सीर अपनी
वो मेरी तक़दीर को समझती है
वो सृजन है किसी अपने का
क्यों नतीजे पे वो संभलती है
उतेजनाओं से मैं खण्डित हूँ
वो निश्चिन्त मेरी गिरफ़्त रहती है
नया सा रिश्ता ये मैने समझा
शायद वो भी ये समझती है
कभी जब पढ़ता हूँ किताब को
वो अपनेआप मुझको पढ़ती है


~ आनन्द



ख्याल











































वस्ल की राजनीत है

वस्ल की राजनीत है

मैं दूध लाया
आपने उसको मथा-उडेला
कभी ऊबाला, घी निकाला
बचे से फिर दही जमायी, मट्टठा बहाया
कभी उसको फाड़ा, पनीर सधाया
आपकी सृजनात्मकता अकल्पनीय है
पर इस दूध, मट्टठे का ज़िम्मेदार मैं नहीं हूँ
दूध का दही कर देना
आपकी तकनीक है
आपका शोध है

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )



करो कुछ भी करो, इतना करो, पागल मुझे कर दो

यूँ अपनी ज़ुल्फ का उलझा हुआ बादल मुझे कर दो
करो कुछ भी करो, इतना करो, पागल मुझे कर दो

चलो अब ख्वाइशों से ही भरेंगे मन का खाली पन
सिमट आओ ज़रा, आगोश का आगल मुझे कर दो

बहुत खामोश रहने लग गये हो, आज कल वैसे
सुना कर एक गज़ल अपनी, चलो, कायल मुझे कर दो

न मुमकिन है कभी श्रंगार का आइना बन पाऊँ
मगर जब भी सजो इतना करो काजल मुझे कर दो

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )










जानती हो

जानती हो !

वैसे, हमें अब याद नहीं आता
पर गुज़री शाम जब
शिफॉन की शफ़्फ़ाफ़ पशो-पेश
में तुमको देखा था
तब तांत की सूती में ढकी
तुमसे पहली मुलाक़ात
ताज़ा हो आयी थी।

तेज़ क़दम, ख्यालों में उलझे
खादी की सदरी में संभले
हम अपनी तरह के थे ,
खुले बालों में अंगुली लपेटे
कोलापुरी-रफ़्तार समेटे
तुम मेरी तरह की थी।

ऐसा लगा की उस मोड़ पे
एक बोस्तां हमपर से गुज़रा था
कटरा नील के कोने उस सकरी
सड़क पर जैसे ही मुड़ा था।

ग्रीष्म ने बेसुधी पर
अघोषित चढ़ाई की
जब तुम्हारे गेसुओं की नमी
मेरी सांसों में उतर आयी थी।

आज भी जब भाषा मेरे ख्यालों को
सजाने आती है तो
" कहाँ खोये रहते हो " की आवाज़
फिर से गूँज जाती है
हम भी हर मोड़ पर अब
रुक कर गुजरते हैं।

मुमकिन होता नहीं है वर्तमान में
कुछ भी निश्चित बताना
न ही मुनासिब है अतीत को
भूलना या भुलाना।

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )





पर मैं अब वहां नहीं रहता

कुछ लोग,
मुझमें मुझको ढूंढ़ने आते हैं।
पर मैं अब वहां
नहीं रहता।
दोस्ती, कशिश, वस्ल की
सरायें हैं
इन्हीं में अदावत और रंजिश
के बिस्तरों पर सुस्ताकर
गुज़रता हूँ।
बेनामी-उम्र के मीलों में
ढूंढ़ता हूँ खुद को
कभी मिल जाऊं तो
बता देना।


~ सूफ़ी बेनाम




बहुत लम्बे सफ़र से लोग जो आते हैं कहते हैं

वज़्न - 1222 1222 1222 1222
काफ़िया - साया(आया), रदीफ़ - नहीं करते

कभी रंगों को अपने, अस्ल से साया नहीं करते
जो हों अपने लिये वो इश्क़ पे ज़ाया नहीं करते

वहम है वस्ल में खुद को खुदी से दूर कर देना
मुहब्बत करने में नज़दीकियां लाया नहीं करते

बहुत लम्बे सफ़र से लोग जो आते हैं कहते हैं
जिने आज़ाद रक्खो वो कहीं जाया नहीं करते

हमें अब लाज़मी लगते नहीं हैं दोस्त, क्या कर लें
अकेलेपन को अब हम हर कहीं ज़ाया नहीं करते

अधूरा होना किस्मत है, अधूरा जीना आफत, पर
अधूरापन जो जीते हैं वो बतलाया नहीं करते।

मेरे मालिक मेरे मौला, छुपा तुमसे है क्या अब तक
किसी भी झूठ को अब हम यूं दफनाया नहीं करते।

~ सूफ़ी बेनाम










ज़रा देखो, ये कैसे हो पड़ी औंधी, सड़क पर ही

1222-1222-1222-1222

ज़रा देखो, ये कैसे हो पड़ी औंधी, सड़क पर ही
नशा भरती हो कश में क्यों अगर झिलता नहीं तुमसे

गज़ब एहसास उलझन थी जो गुज़री रात भर लिपटे
अगर चाहत नहीं होती कभी टिकता नहीं तुमसे

हजारों ख्वाइशें हैं पैडलों की, ज़ीन की, पर अब
बंधा एक चेन से हूँ, इसलिये मिलता नहीं तुमसे

मेरे लोहे की कैंची, रान से चक्कर घुमा कर के
बिना मेरे वो मीलों का सफर पटता नहीं तुमसे

हमारी घंटियां तुम बेवजह इतना बजाती हो
तुमी को हैं दिये दो ब्रेक पर रुकता नहीं तुमसे

भले दिन भर चलाया कर, ज़रा धीरे घुमाया कर
वज़न सौ मन हो तेरा, मैं कभी थकता नहीं तुमसे

- सूफी बेनाम






















ज़िन्दगी कुछ तो बता इस बेइमानी की वजह

2122-2122-2122-212
ज़िन्दगी कुछ तो बता इस बेइमानी की वजह
क्यों हैं अब भी ख्वाब महके रातरानी की वजह

फिर नहीं हम रूबरू हो पाये, दोस्तों की तरह
है बनी जबसे ये हसरत, ज़िन्दगानी की वजह

आपने दो गज़ की दूरी पे हमे रक्खा सनम
ढूँढते ही रह गये हम, सावधानी की वजह

जब मिला, उलझा हुआ, हमको मिला, आशिक मेरा
कोय तो हमको बताओ, इस कहानी की वजह

इस गज़ल में राबता हमसे बना है इसलिये
शेर में गर मैं ऊला हूँ, तुम हो सानी की वजह

ज़ुल्म जो हमपर किये सब मुस्करा कर के किये
अब चलो हमको बतादो महरबानी की वजह

दर्द में हसने की आदत है हमें उस दिन से ही
फकत गर तुम समझ पाओ बदगुमानी की वजह

- सूफी बेनाम


सर फिराना उम्र को नहीं भा रहा

2122-122-2212-22
इश्क नाकाम हो इस दफा ठीक है
सर फिराना उम्र को नहीं भा रहा

इस कदर रूठी हैं सब जवां हसरतें
पर मनाना, हमें तो नहीं आ रहा

रट चुके वो पहाड़े सौ तक, पर उने
ये गणित अब मैं समझा नहीं पा रहा

जाइये ढूंढ़िये कोइ सतही मिले
अब मैं गहराई में डूबने जा रहा

~ सूफ़ी बेनाम

Disclaimer : ये गज़ल किसी के लिये नहीं लिखी गयी है, इसको लिखते समय न किसी जानवर की हत्या हुई न ही कोइ दिल तोडा गया . धूम्र पान सेहत के लिये हानिकारक है .



दर्द की मण्डी में है ज़्यादा मिला

2122-2122-212

दर्द की मण्डी में है ज़्यादा मिला
इश्क का तोड़ा हुआ ताज़ा मिला

भाव अब भी लग रहा चढता हमें
कम हैं ग्राहक तब भी क्यों आधा मिला

है किसानी हुस्न की मालूम है
जब मिला बरसात का मारा मिला

एक जवां मौसम की ज़िम्मेदारियां
कर्ज़ में डूबा वो बेचारा मिला

- सूफी बेनाम



जो भिगोती थी हमें हर रोज़ केरल की तरह

2122-2122-2122-212
जो भिगोती थी हमें हर रोज़ केरल की तरह
हो गयी है आज हमसे रूठ, राजस्थान वो

हसरतें मेरी बिहारी सी हमेशा ही रहीं
कर गयी है ज़िन्दगी, आज़ाद हिन्दुस्तान वो

हम हुए फिर से जवां जबसे हुई कश्मीर तू
सुन बनी आतंकवादी, मेरी राहत-जान वो

रोक है हर शौक पे मेरे लगी गुजरात सी
इत्मिना अब भी नहीं है, मेरी आफ़त-जान वो

यूँ नहीं बिन सोच-समझे, हम हुए हरयाणवी
जट्ट बुद्धि से ही बनता है बड़ा इन्सान वो

~ सूफ़ी बेनाम