Saturday, April 30, 2016

इरादे ख्वाब के समझें किधर से

बहर 122 2 12 2 2 122
गिरह :
हज़ारों चिलमने चाहे छुपा लें
बचा है झूठ कब सच की नज़र से

मतला :
इरादे ख्वाब के समझें किधर से
सफर हो रात का तेरी नज़र से

बड़ी है रौशनी जब से मिले हो
ज़रा नज़दीक आ जाओ सफर से

चरागर देख लो मेरी नफस को
घुला सा रह गया दिल उस असर से

रहो गे कारवां में सफर भर तुम
मिलेगा क्या मगर उसकी डगर से

उतर कर आइने में अक्स छुपा
कहो तुम असल से निबटे शहर से

बहुत तक़दीर वो ले कर उड़ा था
खुली परवाज़ में छुपता किधर से

रही कुछ उलझने उसको ज़यादा
घनी उस जुल्फ में खोया जिगर से

रुका क्यों रह गया बुझदिल यहाँ पर
बज़्म में लौट जा उसकी इधर से

भरे हैं हम नवाले दिल कि बातें
ज़रा सा प्यार कर ले हम नज़र से

मिसालें ढून्ढ मत कुछ और कर ले
न ही बदले न बदलेंगे असर से

कभी तू और में बसने हमें दे
पुराना हो गया हूँ इस सफर से

हज़ारों शौक थे कुछ भूलि बातें
अभी तक सांस लेती हैं कबर से

बदी को आह में भर कर चला जो
हटा लो हर कदम उसकी डगर से

बड़ा आज़ाद था साड़ी क पल्लू
बंधा है  हार कर तेरी कमर से

नसें गुलनार सी, पायल तो देखो
बिछी है पाँव पर शायर जिगर से

बहुत ही नरगिसी आगोश तेरी
हमारे ज़ख्म हैं तेरी नज़र से

शुआएं चूम लूं नज़दीक आओ
दिले महरूम हैं एक हमसफ़र से

~ सूफ़ी बेनाम


Thursday, April 28, 2016

हमराज़ अगर बन जा कुछ और कहें हम भी

एक बार का सौदा है तारीख बदलने का
हर बार तुमे रोका तकसीर संभलने का

काजल की कोरों पे क्यों उल्झा ये सफर लम्बा
शायद न रहे आसां अंदाज़ मचलने का

हमराज़ अगर बन जा कुछ और कहें हम भी
एक राज़ दीवानों का कुछ साथ पिघलने का

बातें ही रही उलझा महसूस नहीं है कुछ
उम्मीद बना बैठे कुछ ख्वाब सफ़ीने का

हर बात पे लड़ती है कट-खैनि ग़ज़ल है वो
कुछ प्यार उमड़ने दे दिन साथ गुजरने का

~ सूफ़ी बेनाम


221 1222 221 1222





तभी पाया गज़ल को था

1222*4

हकीकत को कहीं खोया तभी पाया गज़ल को था
सभी को लग रहा था कलम से बहता लहू ही था
रहे दयर - ओ - हरम में डूबते चाहत वफा सभी
कभी ढूंढा नहीं फिर अस्ल खोया कहीं पे था

~ सूफ़ी बेनाम

दयर-ओ-हरम --» temple, mosque


चाह को उमर भर जलाना है

2122 1212 22

मतला :
चाह को उमर भर जलाना है
पलक पे आज फिर बिठाना है

रह गयी कुछ खलिश इरादों में
हम को हर हाल तुमको पाना है

कुछ थी उम्मीद कुछ सफर लम्बा
चाह के हौसले बढाना है

एक ग़ज़ल हाल था सफ़ीने का
हर लहर मस्त झूम जाना है

रात फिर बेनिशा मुकामों की
आस पर सांस की  तड़पना है

आयगा दौर अबके  बारिश का
ओंठ दो बूंद से भिगाना है

फिर अगर आजमा सको किसमत
एक हसीं काफिला बनाना है।

~ सूफ़ी बेनाम।




मतला :
चोट कर के उदास बैठा है
जान लेना कि ये ज़माना है

चाहतों में कभी अगर उलझी
आग को भी धुंआ बनाना है

गर कभी राह पे मिलेंगे तो
साथ नज़दीकियों को पाना है

उम्र का है जुनूं कहीं दिल में
चोट खाया हुआ बताना है

है सफर रास्ता मुक़ददर का
शायरी साथ करते जाना है

गर कसर हथकड़ी लगा जाये
एक खता हम को भी भूल जाना है

~ सूफ़ी बेनाम



तन्हाई, जुदाई

बड़ा मसरूफ रखते है मस्क सांसें, रानाई भी
मुनासिब है तुम्हें हो मंज़ूर जीवन की तन्हाई भी
ज़रा मालूम तो कर लो इरादा ज़िन्दगी का
बे-नज़ीर कर चुकी है तुमको मेरी जुदाई भी

~ सूफ़ी बेनाम





Sunday, April 24, 2016

जागेंगे फिर से किल्लों में

जागेंगे फिर से किल्लों में
जवां होंगे फिर फूलों में
महक लेंगे तुम्हें फिर से
ज़रा जीने की हसरत में

कभी हम कैस लैला भी
करेंगे सिर पे पत्थर भी
बहेंगे माथ रुधिर से
इबादत भी हसरत भी

भरे हैं आज हम समझो
छलकते आज हम समझो
एक सूखी सदी गुज़रे
ये साल जानो या न समझो

~ सूफ़ी बेनाम



अंधेरों हटो अब दिनों का उजाला

अंधेरों हटो अब दिनों का उजाला
फकत दम भरेगा सफर साथ साया

रहा संग मेरे गुज़िश्ता अधूरा
अधूरी ग़ज़ल में किसी को थ पाया

मेरी जान तुम हो ज़रा मुस्करा दो
कि शाम-ओ-सहर था तुमे ही बुलाया

कफ़स तोड़ कर जो खुले आसमां में
उड़ो साथ मेरे बनो मेरा साया

इधर भी उधर भी ये क्या माजरा है
ज़मी ने फलक तक तुमे ही सजाया

कहो तुम बनोगे न मेरा सहारा
जलाओ न हमको तुमी ने हंसाया

अधर पे गुज़र कर ग़ज़ल चार मिसरे
हिदायत रहे हमसे अपना बसाया


~ सूफ़ी बेनाम



इरादा और था लेकिन सुला दो

गिरह:
इरादा और था लेकिन सुला दो
चराग़े बज़्म की अब लौ घटा दो

मतला:
मुबाद्ला नेक है उनको बता दो
ज़रा जी लें कभी इसकी सला दो

थकी आंखें बुझा सा मन तुमारा
दिलों को पास आने की सज़ा दो

बुझा कर रख सको तो रख के देखो
नहीं तो जल सकें इतना मिटा दो

इबादत ढूंढती है आशना फिर
अगर नासाज़  हो तो तुम बता दो

बनी हैं हसरतें कुछ उन की सांसें
इरादा साफ है उनको बता दो

ग़ज़ल में हो रहा है ज़िक्र आओ
कहीं उलझो नहीं बस आसरा दो

बड़ा डरपोक है आशिक़ सुनो तुम
फकत बाहों में भर के तुम सुला दो

~ सूफ़ी बेनाम

( कुछ शेरों के लिये माफ़ी, लेकिन अधूरा नहीं लिख सका इनको)



Monday, April 18, 2016

"ये कैसी उम्र में आ कर मिली हो तुम" ~ गुलज़ार

गुलज़ार साहब की कविता :
"ये कैसी उम्र में आ कर मिली हो तुम"
पे अनु-नाद

बहती नदिया दरिया के घर
हम मिलते फिर उस मिट्टी में
जाने किस संजोग से देखो
फिर मिली हो दिल ग़रज़ी में

बीता गुज़रा मौसम सा है
इस उम्र में तुमसे मिलने में
मेड़ बना कर सींचा तुमको
यादें भर पोली मिटटी में
तर रखता था गर्मी में भी
सूखा सौंधा एक चिट्ठी में
सूनापन एक महक सा देखो
सजता घर के हर कोने में
आँखें धुंधली कर बैठा हूँ
बरसों बंद तिजोरी में
हम तक कोई आहट आयी
तेरी आस थी उस झोली में
ये कैसी उम्र मिली हो मुझसे
. ......
~ सूफ़ी बेनाम



Sunday, April 17, 2016

तुझ में तुझको ढूंढा मैंने

तुझ में तुझको ढूंढा मैंने
तू न मिली कोई और मिला
शक़्ल-औ-नाम जो याद था मुझको
वो तेरा नहीं किसी और का था

जीना बेहतर दिल भीतर है
ये मेरा नहीं दुनिया ने कहा
दिखते हमको तो बस साये हैं
तू मेरा जो था बीत गया

~ सूफी बेनाम


Saturday, April 16, 2016

दबा जो हौसला दिल का कभी तुझको बुलाएगा

दबा जो  हौसला दिल का कभी तुझको बुलाएगा
न मुड़ के देखना तुम भी खुदी फिर भूल जाएगा

बहुत नासाज़ कीमत है हकीकत हम सफ़र लेकिन
लिखा होगा न किसमत में अगर तो क्या निभाएगा

रगों में डूब कर जिनको असल के पार जाना है
कभी मर कर ज़रा देखो  कसर हर याद आएगा

अगर हो चूमना हमको सितारा तेरे माथे का
नज़र को मूंदना कुछ देर दिल फिर पास आएगा

डरी रातें अगर गुज़रो छुपे हों चाँद तारे भी
ज़रा सा आंख तुम खोलो अँधेरा डूब जाएगा

हकीकत शेर में बंध कर अगर दो सांस लेती है
बड़ी हसरत ग़ज़ल की है कभी तू गुनगुनाएगा

~ सूफ़ी बेनाम


Tuesday, April 12, 2016

एक बेनाम ख्याल का पुर्ज़ा है ज़रा नाराज़ सा

बदा उस कहानी में लिखा उसकी लकीरों सा
निगाहों से बहा जो बसा था आब-ए-हसरत सा
इस सफर में रोज़ जन्नत अब मुका ढूंढती है
एक बेनाम ख्याल का पुर्ज़ा है ज़रा नाराज़ सा

~ सूफ़ी बेनाम



आँखों के दरीचों पे दिन की रौशनी को काले परदे - goggles

आँखों के दरीचों पे दिन की रौशनी को काले परदे
रात बे-इत्मिनान चांदनी के मस को खुल जाते हैं
जलाता नहीं चाँद जिस्म को दिन - रौशनी की तरह
जाने क्यूँ फिर भी हम तुम बेआब हुए जाते हैं।

~ सूफी बेनाम

आँखों के दरीचों पे दिन की रौशनी को काले परदे - goggles/ shades/ dark glasses

वस्ल का कोई मकां नहीं होता

रात का आसरा नहीं होता
वस्ल का कोई मकां नहीं होता

कुछ कदम हम सफर चले लेकिन
अब कभी वासता नहीं होता

हर जगह घर बना सका इनसां
मैकदा बारहा नहीं होता

तह तलक भीगना मुनासिब था
दर्द दो बूँद का नहीं होता

हर सुबह-शाम की पहेली का
किस्मतों को पता नहीं होता

राह बेनाम इबतिला लेकिन
दोस्त हर बाखुदा नहीं होता

~ सूफ़ी बेनाम



इबतिला - suffering/trial.


सूरत से हमको वो शायर लगता है

सूरत से हमको वो शायर लगता है
खोया हुआ सा जो अकसर लगता है

बहकी थी देखो शाम बिना बादल की
उलझी सी सासों में फंसकर लगता है

हालातों से डरते थे कब दीवाने
हमको हर मन्ज़र उसका दर लगता है

ग़ज़लों में बहका जो मिलता है तुमको
अल्फ़ाज़ों का कादिर बुनकर लगता है

बाहों के पिंजरों की ख्वाइश थी उसकी
पर सइयादों से उसको डर लगता है

ताशों की गड्डी में छिपकर कुछ पत्ते
तेरा ये दिलबर क्यों जोकर लगता है

(last line is बेनामी से हारा दिलबर लगता है )

~ सूफ़ी बेनाम
कादिर - capable


Thursday, April 7, 2016

"समन्दर दर्द में डूबा हुआ है" - 2

१२२२-१२२२-१२२


जहाँ की रेत में जोहर छुपा है
जहाँ हर लहर से उठती सदा है
सफीनों के सफर को जो दुआ है
समन्दर दर्द में डूबा हुआ है।

~ सूफ़ी बेनाम


समन्दर दर्द में डूबा हुआ है

ज़रा सोचो कि क्या मंज़र रह होगा
किनारे पे धंसे सफ़ीनों का
और दूर तक उजाड़-बंजर बिछा होगा

जहाँ सुनते हैं हम तुम लहरों के तराने को
सदा डुबो के सोडा-नींबू-पानी में
तुमारी नेकियों सा वो किनारा भी पहेली है

जहाँ दौड़ते पैरों को पयाब की नज़ाकत का
खारे की बू नमक चिपचिपाहट का
भीना असर हरदम रहा होगा

अपने भीतर सदियों को ढका था कोई
जहाँ न कोई कविता न आग का ज़र छुआ होगा
ढकेगा फिर जलातत में खुदी को खार पानी से

रेगिस्तान सा बंजर किसी कवी का दिल रहा होगा
वो अकेला था तंग किनारों पे खिंचा हुआ है
दिल मेरा भी समुन्दर दर्द में डूबा हुआ है

~ सूफ़ी बेनाम



Wednesday, April 6, 2016

चाहतों ने कभी फिर सदाई न दी

चाहतों ने कभी फिर सदाई न दी
फिर उन हसरतों की दुहाई न दी

मैं हसीं ख्वाब कोई दिखा न सका
ना मुलाक़ात तुमने सफाई न दी

मंज़िलों की हक़ीक़त लम्बा सफर
लूट कर ले गयी जो, दिखाई न दी

रोक लो कि कभी हम मिले ना मिले
भीड़ खोई कभी फिर दिखाई न दी

जिस्म से रंग धुल कर गये फिर कहाँ
क्यों हथेली पे रंगत दिखाई न दी

ज़िक्र के सिलसिले और ख्वाब ओ शहर
खिलखिलाती हंसी क्यों सुनाई न दी

हम किसी के गुनहगार रहने लगे
वक़्त ने क्यों कभी फिर सफाई न दी

~ सूफी बेनाम




तुमारे साथ चलना था सफर के पैर लम्बे कर

बहारों के नहीं होते नज़ारों के नहीं होते
बड़ी किस्मत लिखाते लोग रिश्तों के नहीं होते

बड़ा बेचैन सागर है शरारत सोज़ लहरों की
सनम तेरी महोब्बात हम किनारों के नहीं होते

सभी आँखों नहीं होते सवेरे रोज़ की आदत
कभी इस धूप के साये हज़ारों के नहीं होते

ग़ज़ब ये ख्याल के साये हमारी रात की ग़ज़लें
हकीक़त दर बदर फिरती फसानों के नहीं होते

जवां रातों की हसरत पर तुमारी शोख सिलवट है
हमारे दीन भी अकसर कभी सपनों के नहीं होते

कभी जो गाँव बसते थे कदम उनके निशानों पे
सड़क अब तेज़ चलते है बसेरों के नहीं होते

छुपे थे भीग चिलमन में दरीचों के सहारे से
अगर तुम हौसला रखते दिखावों के नहीं होते

तुमें क्यों साथ चलना है हकीक़त की ज़ुबाँ बन कर
धड़कते मौसमों के संग खिज़ाओं के नहीं होते

ज़रा सा सीख लेते तुम इसी दिलकश पहेली से
फलक के साथ जीते जो नतीजों के नहीं होते

कभी मेरी नफ़स समझो कभी इसकी वजह समझो
चलो ले कर महोब्बत को ज़ख़ीरों के नहीं होंगे

तुमारे साथ चलना था सफर के पैर लम्बे कर
इशारों की जुबां समझो जुनूनों के नहीं होंगे


~ सूफी बेनाम















दोस्त तू सपने जगाना छोड़ दे

दोस्त तू सपने जगाना छोड़ दे
अन्जुमन मेरी तू आना छोड़ दे

फिर किसी बुस्ता बहाने के लिए
तू मेरी चिलमन में आना छोड़ दे

उन सभी गुस्ताख़ ख्यालों के लिये
अक्स मेरा तू सजाना छोड़ दे

खुशबुओं का एक सिला ये प्यार है
बाद से उजड़ा फ़साना छोड़ दे

आफ़ताबी ना मिले हसरत तुझे
रात तू महताब लाना छोड़ दे

कैस था दर पे पड़ा लैला समझ
इश्क़ तू अब शौक माना छोड़ दे

आ ज़रा आगोश में तू भींच ले
हाथ के नाखून चुभाना छोड़ दे

~ सूफी बेनाम

बाद - wind




ख्वाब को महमां बताना छोड़ दे

बेवजह मुझको डराना छोड़ दे
ख्वाब को महमां बताना छोड़ दे

इश्क़ में करते नहीं सौदे समझ
क़र्ज़ ले कर तू चुकाना छोड़ दे

नज़्म अपने घाव दिखाए किसे
नर्म सा मरहम लगाना छोड़ दे

तू कभी समझा नहीं दोस्ती अगर
अब ज़रा रिश्ते बनाना छोड़ दे

दिल लगाने की दवा कुछ और है
अनकहे किस्से बताना छोड़ दे

आप बीती को ज़रा तू याद कर
बेवजह तू मुस्कराना छोड़ दे

एक समय ग़ज़लों लिए तू बांध ले
हर समय तू गुनगुनाना छोड़ दे

ख्वाब से कहना कि रातों में मिले
तू ज़रा फुर्सत निभाना छोड़ दे

आ सिखा दूँ नज़्म के सौदागरों
अब मेरा मिसरा चुराना छोड़ दे

~ सूफी बेनाम



डूबने को फिर सपना हो न हो

डूबने को फिर सपना हो न हो
हसरतों का आँसु गहरा हो न हो

रह वफ़ा के गाँव में गर घर मिले
हसरतों को मन चुना क़स्र हो न हो

आज तू इस लम्स को कुर्बान दे
चाह की तक़दीर खंजर हो ना हो

राह को दो-चार जो मंज़र मिले
रास्तों का कोइ दिलबर हो न हो

फिर ठिकाने खोज करते काफिले
शाम को फिर रात का घर हो न हो

हर किसी के दौर आता आसमा
पर कभी अख्तर मुकद्दर हो न हो

हौसला रख हर कहीं मेरा निशां
हर इबादत श्याम का घर हो न हो

~ सूफी बेनाम
क़स्र - palace






दिले नादान बहकाए गए है

दिले नादान बहकाए गए हैं
हसीं हरदम सितम ढाए गए हैं

जिगर को लूटना आदत जिने है
न रंगे हाथ पकड़ाए गए हैं

सफर एक दौर शरारत ज़िन्दगी का
किसी को आँख पथराए गए हैं

ज़रा दिन की हकीकत हम से पूछो
न जाने रात क्यों साए गए हैं

रहेगा हौसला नज़दीकियों का
करीबी आज भरमाए गए हैं

बहुत बे-पर इरादे आसमां के
सभी बेनाम दफनाए गए हैं

~ सूफ़ी बेनाम


लिफ़ाफ़ा है असल देखो हकीक़त संग हो फिर भी

निगाहें जो भरोसा रह गयीं दो ख्वाब शिद्दत के
इरादा हसरतां देखो ज़रा बद रंग हो फिर भी।

पलक उसकी झुकी देखी इबादत सा हसीं चेहरा
दबी उल्फत लरकती है सदा बे-रंग हो फिर भी।

अदा है ज़िन्दगी देखो हज़ारों शाम चाहत की
मसक के याद चुभती है किसी का संग हो फिर भी।

दिलों भीतर गुज़र करते सभी इंसा इसे समझो
लिफ़ाफ़ा है असल देखो हकीक़त संग हो फिर भी।

~ सूफ़ी बेनाम



Sunday, April 3, 2016

नशा बन चुका है सफर का जुनूं

हक़ीक़त दवा है निगलने तो दो
दरीचे ज़रा आस दिखने तो दो

कभी साथ चलना रिज़ा थी मेरी
अदब है ज़रा सा बदलने तो दो

नशा बन चुका है सफर का जुनूं
प्याला रची  मय छलकने तो दो

बिखर रौशनी में सबा का असर
गिले इस कदर, दम निकलने तो दो

वजह जाफराना ग़ज़ल की तेरी
हमें भी ज़रा सा समझने तो दो

~ सूफ़ी बेनाम


Friday, April 1, 2016

ग़ज़ल में भी पुराने यार होंगे

सफर मतले वही दो-चार होंगे
ग़ज़ल में भी पुराने यार होंगे

झलक तेरी ज्यों खिलने लगेगी
हमें एक बार यूं दीदार होंगे

जहाँ थोड़ा शफ़क़ सूना लगेगा
वहाँ हम तुम मिसाले यार होंगे

नज़र जब फिर रुकेगी नज़र पर
बड़े ही जाँफ़िदा व्यापार होंगे

कहानी फिर ज़रा लिखना लबों से
न जाने कब कहीं दीदार होंगे

हमीं को भूलना होगा समय से
वरन रिश्ते सभी बाज़ार होंगे

उम्र मौसम समझ ने हैं बुलाये
जवानी में ग़ज़ब के खार होंगे
~ सूफी बेनाम



डूबने को फिर सपना हो न हो

डूबने को फिर सपना हो न हो
हसरतों का आँसु गहरा हो न हो

रह वफ़ा के गाँव में गर घर मिले
हसरतों को मन चुना क़स्र हो न हो

आज तू इस लम्स को कुर्बान दे
चाह का तक़दीर खंजर हो ना हो

राह को दो चार जो मंज़र मिले
रास्तों का कोइ दिलबर हो न हो

फिर ठिकाने खोज करते काफिले
शाम को फिर रात का घर हो न हो

हर किसी के दौर आता आसमा
पर कभी अख्तर मुकद्दर हो न हो

हौसला रख हर कहीं मेरा निशां
हर इबादत श्याम का घर हो न हो
~ सूफी बेनाम
क़स्र - palace,


अंदाज़ हसीनो का एक राज़ शराफत का

अंदाज़ हसीनो का एक राज़ शराफत का
क्यों ज़ख़्म सजाये हैं इमरोज़ इबादत का

हर शाम सिरे लेकर एक ग़ज़ल से मिलती थी
बा खूब उभर आया एक राज़ क़यामत का

कमज़ोर स राब्ता हैं दो हर्फ़ जुदाई के
पर शेर कसर रखते नादान कि हसरत का

मिल कर जिस आशिक़ से रहते हम पागल हैं
रखता है परवाना अंदाज़ अमानत का

बेगार सफर में भी हर मोड़ गली वो ही
हर राह खबर रखती बेनाम महोबत का

~ सुफिबेनम



यार उससे बात करले यारी पुरानी है बहुत

जल चुकी है हकीक़त आग पानी है बहुत
बस रहा है ख्वाब में दिलबर कहानी है बहुत

दौड़ आना तुम कभी गर याद हम आने लगे
दूरियां-नज़दीकियां यूं जाफरानी है बहुत

दिखते बाज़ार में हो रोज़ मर्रा शाम को
रूबरू तुमसे नहीं, चाहत रवानी है बहुत

कुछ करीबी दोस्त मेरे रोक कर कहने लगे
यार उससे बात करले यारी पुरानी है बहुत

चाहे जितना भी बुझाले आस बढ़ती जा रही
मयकदा दुनिया बनी हमको चढ़ानी है बहुत

हम तरीका ढूंढ लेंगे तुम शराफत से कहो
हर जगह चलती नहीं ये पहलवानी है बहुत

दूध पीपल को चढ़ाते लोग हर शनिवार को
काट हर ईज़ा की कथा पुरानी है बहुत

रोक देंगे गर हमें तकलीफ तुम देने लगे
प्यार की भाषा न समझे नार फानी है बहुत

~ सूफी बेनाम


अंग के प्रसंग रंग, रंग मोहे अंग अंग (होली गीत )

अंग के प्रसंग रंग, रंग मोहे अंग अंग
रंगे  है अबीर लाल, भीग बादलों के संग

होली खेले बजरंग, सीता माई संग संगे
रघु ले कर गुलाल, देखे नार का हुरदंग

भांग चढ़े मंद मंद, दिल सिंचते हैं संग
हुल्लड़ की टोलियों में, भीग संग अघ-नंग

अंगद रावन खींच, सख्त बाजुओं में भींच
भीगी  तरंग पे अंग, लंका भई सतरंग

ख्वाइशें पी आयीं भंग, मालपुए कश संग
चीथड़ों से दिख रहे, तेरे गुम अंग नंग

लक्षमन ढके अंग, सुरपंखा  करे तंग
जोबन से तंग अंग, लचके कमर संग

देसी औ विदेसी मेमे, होली सब एक संग
अहीरों के नर-नार, रंगे ठाकुरों के संग

होली खेले बजरंग, सीता माई संग संगे
रघु ले कर गुलाल, देखे नार का हुरदंग

~ सूफी बेनाम


किसी डाल पर चाहतें लड़खड़ाये

किसी डाल पर चाहतें लड़खड़ाये  
कहीं बाद हसरत नशेमन उड़ाये

दुपट्टा ज़रा तू संभलके उड़ाना
कहीं आरज़ू उलझ मेरी न जाये

कलीमा न पलकें न काजर के मिसरे
नफ़स जाम से ज़ुल्फ़ के मन्द साये

कफ़स का सलीके हमें क्या पता था
कि बाहों रही क्यों गुलिस्तां बसाये

न चिमटी न कंगन न बिंदिया न कुमकुम
अराईश  इनकी तुमे भी सताये

न बेनाम रखना कभी याद मेरी
ग़ज़ल तिशनगी-दासतां गुनगुनाये

~ सूफ़ी बेनाम



हमने रात गुज़ारी तनहा


अपनी करवट हम सोये थे 
तुम आये आलिंगन करने 
स्वप्न पराग के मधुकर बनकर  
मन-मकरंग जगाया किंचित  
हम बेसुध निद्राई ही थे      
तकिये को आगोश में भर कर
रह गये तनहा कुस-मुस कर
हमने रात गुज़ारी तनहा 
  
तिमिर को पैबंद लगी जब 
खोले आंखों ने जब बिस्तर
सांसें  कुछ आवेश में भरकर 
जाग उठा ठहराव को तजकर 
एक सिलवट मेरी बांह जकड़कर 
चूमी मुझको नाक टकर-कर 
पूछ बैठी कि थे कहाँ खोये 
कह गुज़रा मैं तनहा रात भर
~ सूफ़ी बेनाम