Tuesday, January 21, 2014

शाम

रफ्ता - रफ्ता - आहिस्ता  …
कुछ देर को रुकी तो थी,
वो शाम तुम्हारे इंतज़ार को
पर सिर्फ अपनी ख्वाईश पर
उसे रोक न पाया।

वो लौट के आती भी रही
हर रोज़ उसी पहर पर
पर शायद तुम वो दिन
बिता न पाये जहाँ हम
तुमको छोड़ आये थे।

आज भी शाम मेरे सामने
एक बंद ताबूत सा लेकर बैठी है
उसमें उलझे टूटे से
कुछ अधलिखे मिसरे बिखरे हैं
अब इनको पिरो नहीं पाता।

उलझन उन अंधेरों की है
या दिन कि तहक़ीक़,
देखा तो है हर तारिख पर
एक नये दिन को रात का
हाथ थामने को बढ़ते हर शाम को।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, January 15, 2014

बूचड़खाना

मेरे कसाई को मालूम है
जिस्म का कौन सा हिस्सा
किस काम का है।

और क्यूँ न हो
कटे हुऐ बदन को
बोटियों में बदलना
खाल को करीने से उतारना
अंतड़ियों को बाहर फेंकना
गुर्दे - कलेजी पे लगी चर्बी को
छीलना , साफ़ करना
रान और चाप की नज़ाकत
वो खूब समझता है।

मेरे रक्त-रेज़-क़ातिल
इस पेशे में, एक हुनर से
कला में पहचाना गया है।
इसी से मेरे कसाई की
दुकान चलती है।

किसे पता था
खुले खलिहानों और
नम हरी दूब
पेड़ों की छाओं में
कूदें लगाते ये साल,
किसी दगा से
मेरे खरीदार के नाज़ के लिए
कभी ईद , होली, दिवाली को
कुछ गोश्त की बोटियों में
पहचानी जाएंगी।

~ सूफी बेनाम