Friday, August 25, 2017

समय की सूचियाँ

समय की सूचियों में, नाम जुड़ते हैं, नये कब -अब
पुराने लोग हैं, कुछ जो बहलने, लौट आते हैं

मिला करते हैं, हम भी अब, सभी से इश्क़ में घुलकर
उमर-बेताब को, हम कब कहां, संभाल पाते हैं

नतीजे एक से, होते कहाँ हैं, हर महोब्बत के
तज़रबा शक्ल को हम, देख के, पहचान जाते हैं

~ सूफ़ी बेनाम







बहतर है

हजारों झूठ से, बहतर है, ख्वाइश को भुलाना ही
कहो तुम सच की, सपनों से हिफाज़त, क्यों नहीं करते

कहां पर खो गये हैं, खुद नहीं मालूम है हमको
मगर तुमको भुलाने की हिमाकत, क्यों नहीं करते

अदावत रोज़ होती है, महोब्बत रोज़ मरती है
सुनो फिर नफरतों को आम, आदत क्यों नहीं करते

- सूफी बेनाम



तीज २०१७

ज़माने भर की रौनक ले के दिल मे जग चुके सपने
सुनो अब तीज पे उनका कोई पैगाम आ जाये

बहुत खुशबू रही इस प्यार मे औ चाह है हद तक
इसी ताबीज़ से हर दर्द को आराम आ जाये

कभी ऐसा भी मौका हो कि हम तुम पास आ पायें
तुमारे लब बिखेरे दिल्लगी औ शाम आ जाये

~ सूफ़ी बेनाम


 


निशानी कच्चे पन की

समझदारी, निशानी कच्चे पन की है, हमेशा ही
तज़ुर्बेकार, रखते हौसले, नासमझियों के हैं

गुज़रते सालों के मज़मों में, यादें पल रहीं है, पर
बचे सालों से अकसर हम, उमर को आंक पाते हैं

शराफत ने सिखाया है, अभी तक जीना, डर-डर के
मसाफ़त की कशिश से, सच का मज़हब भांप लेते हैं

बहुत नादान हो, जो चाहते थे, ठीक हो सब कुछ
चलो, अब ठीक क्या है, ये तो तुमसे पूछ सकते हैं

वो पागलपन, कभी जिसके लिए तुम पास आती थी
उसी को बेवजह, क्यों आज तक हम, पाल रक्खे हैं

हलफ़नामे, कभी छपते नहीं हैं, इश्क़ में मरकर
न जाने क्यों, इसे मज़हब का, फिर सब नाम देते है

~ सूफ़ी बेनाम




मसाफ़त - journey / distance ; हलफ़नामे - affidavit 

Tuesday, August 22, 2017

तुम्हारी कवितायेँ

आज कल तुम्हारी कवितायेँ
भीतर तक हिलाने लगी हैं
ऐसा लगता है जैसे कोई है
शायद मेरे ही भीतर
जिसके लिए ये शब्द तुम से
उभर कर, लिख जाते हैं
पर
शायद मैं उसको
जानता नहीं
ऐसा लगता है कि जब तुम
ढूंढ लोगी उसको
तब मैं भी उससे मिल सकूँगा।

~ सूफ़ी बेनाम