Thursday, May 30, 2013

इख़्तियार

कई दीवारें और 
एक दरवाज़ा है यहाँ 
दुनिया से सिमट कर 
थोड़ी जगह अलग कर 
चंद पथरों को जुटा कर 
एक घरोंदा बनाया।
इस में दुनिया से छुप कर 
अपनी सांसों, हसरतो खलिश 
को पिरोया, जगाया, बनाया।
कुछ खुद के लिये 
कुछ अपनों के लिये।
पर अपने ही में 
घुला हुआ अँधेरा 
इस घरोंदे में घर कर गया है।
कुछ उलझन में,
कुछ बेबसी में 
बिस्तर के करीब 
की दीवार चटखा कर 
एक खिड़की बनाई है।
कुछ रौशनी कुछ हवा 
कुछ ताज़गी का एहसास इससे।
पर अब इसको इख़्तियार करने को 
दो परत पर्दों को भी झुलाया है।

जब मै चाहता हूँ ये निष्कपट हो जाते है 
जब चाहता हूँ खिड़की 
को दफ्न कर देता हूँ।


~ सूफी बेनाम
   

Wednesday, May 29, 2013

सांसें

जाने क्यों
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

भटकती हैं इधर-उधर
इस फिज़ा में जूझा करती हैं
कभी हवा बनकर परेशां बहती हैं।
मै बेसब्र, इन के बहाव में
कई बार आराम महसूस किया।

कल तो ये कुछ बादलों को
खिसकाकर, पलटकर ले आयी
और कुछ बूँदें छींट कर,एक पहचानी सी
नज़्म से मुझे भिगो कर गयी थीं।
आज इन वादियों-पहाड़ों के
बीच की दूरियों को ढक कर
इन बेसब्र सांसों ने, मेरे चरों तरफ
धुंध का एक चोला लपेट दिया है
और खुद को करीब महसूस किया है।

फिर भी
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

~ सूफी बेनाम




Tuesday, May 21, 2013

कवि / शायर


जैसे मानो कोई मज़दूर,रेज़ा, रिक्शा वाला,
जलती धूप की दाघ के असर से
अक्सर ही अपनी साध-सुध खो देता है
दूर दरख्त की नीरव छाया, उसकी प्यास बुझाने को,
हाला की महक उसके पसीने की,
उभार उसके जीने का एहसास, उसको  जीवन देती  है।

या  मानो कोई किसी उधार की छाओं तले,
प्रियसी के करीब बैठे-बैठे
एक संबंध-संबोध की आस  लिए
उसके दुपट्टे के छोर से मुह ढक कर
अपनी व्यकुल्त जताने या छुपाने को,
फूल, बरसात, बादलों और पंछियों की बातें करते हैं

या फिर समझो कि किसी कसक
को अपने रूंधे गले में दबाये
उत्तेजनीय रोग़न से भीगा लिबास ओढ़े
बंद कमरे की खलिश में अकेला कोई
एक माचिस को अपने दिल की बात कहे
जिस की लपट से, चिंगारी से वोह शांत होगा।

या जैसे कोई बच्चा, खेल कर  थका हुआ
अपनी भूख, अपने कपडे,
अपनी हालत शक्ल और अंदाज़ से बेसुध,
बिस्तर पर जा गिरता  है  या  बिखरता  है
और  खुली  आँखों से  रौशनी की  लहक पे
नींद में घुल  जाता है।

ऐसे  ही मानो कभी  कोई
बे -ख्याल कुछ बे - आज़म  कुछ गुनगुनाये
या फिर कोई फ़रेबी दिन को  रात कहे,
और  अपनी  बीवी  को  ख्वाब दिखा  के झुठलाये
या फिर कोई बेवजह, सच के आगे अपना झूठ जोड़  कर   बोले
तो  समझो वोह एक  कवि  है, शायर  है .

कुछ  लिख  पाते  हैं, कुछ  शब्दों  में डूब जाते  हैं
कुछ  कह  पाते  हैं, कुछ जी  जाते  हैं।


~  सूफी  बेनाम





Monday, May 20, 2013

बेपर्द




मुशायरे  की शाम है
लौ  को  आंचल  में  लपेटे
शमा  मेरे  करीब  है
उसकी  आंच  के  तले
आस  पास  का  अँधेरा;
मुक़र्रर - मुक़र्रर  की  आवाज़
इर्द- गिर्द  बैठे  लोगों  के  कहकहे
सब बेवजह,  बेकार ...
कैसे  लिखा  करें  ऐ   ज़िन्दगी
तुमको  एक  कागज़  पर
क्यूं आज  ऐसी  बेशक्ल  है  जुबां
यहाँ  बेमर्म  हैं  सुनने  वाले।
कागज़  पे  अक्षर  स्याही के नहीं हैं
ये   बेनाम  की जिंदा  नसों  का  लहू है।
इस पन्ने   पर  गुमराह  हैं  जिंदा  कुछ  ख़्वाब
ये  तो  आपस  में   ही  उलझे  पड़े  हैं
आगोश  में  भर  कर मायनों  को
मेरी  नज़्म   में  बेपर्द  पड़े  हैं
ना  तो  सलीका  है  ना  गिला  है
खुद  को  खुद  हॊने  का ।




दुनिया का आखिरी दिन



कोई तो हसरत हो जिसपे टूट जाएँ हम
कभी तो कहीं पे रुक जाएँ कदम
किस आवारगी में गुज़र रहा है यह सफ़र
क्या यह जुनू है।

बार बार अटकी है तुमपे नज़र
कई बार यह ख्याल दिल में आता है
क्या हमारी मोहब्बत
फिर एक तरफ़ा ही रहेगी।

बेसब्र एक ख्वाब ने
अपनी बेफिक्र-बेदर्द फितरत से
मेरी बुझी हुई हसरतों पर
दस्तक दी है।
कोई तो होश में लाओ मुझको
नहीं तो फिर से
हम एक तरफ़ा मोहब्बत जीयेंगे
एक जाम ख्वाब से सहारे ........
तेरे हुस्न की महक में
मेरी आरज़ू की खुशबू है



सुना है तुम परेशां हो



तुम्हारी ही पलकों पे पलते हैं
साज़  मेरे सपनों  के
सुना  है  तुम परेशां हो
आज मेरी ज़िन्दगी से
बताओ तो क्या मिलेगा तुमको
हमसे खफा होके ?

मै जी ना पाऊँगा कभी बेवफ़ा होके
क़ुसूर किसका है ?
यह हम नहीं जानते
अगर हम दोहरे होते
तो तुम्हारी आँखों के मोती
इस जहान से क्यों प्यारे होते ?

कैसे जीयोगे इस दुनिया में
हम से जुदा होके
किन आसुओं के सिरहाने
किस जिस्म की खलिश पर
बीतेंगी ये रातें
भूल मेरी रूह पर ली सौगात लेकर।

पर अगर कभी ऐसा लगे तुमको
कि साथ जीने में वो महक नहीं रही
या उन फ़िरदौसी चाहत में
जिसमे दिन -रात बहके थे
कोई खराई नहीं थी
तो भूल कर मुझको जीवन का रास्ता चलना।

शायद मैंने ज़िन्दगी के
कुछ सबक अधूरे छोड़ दिए
शायद एहसास यादों में जीने का हो अभी बाकी
और उनमे ही जीवन हो एक कसक लेकर
इतना बस मालूम हमको है
जब भी नाम आयेगा तुम्हारे दीवानों का
तो सब निशां मुझपर ही होंगे।



दीवानापन






आजीब है यहाँ की दुनिया का दस्तूर
ये सितारों भरी शाम को रात कहते हैं
रौशनी के कोलाहल में घुलते हुए ख़्वाबों को दिन
धुप से चोंधियती आँखों से क्या देखोगे
ज़रा सुकून से जी के देखो।



Sunday, May 19, 2013

शिकारी


दिल एक शिकारगाह है
हसरतों का जंगल घना है
मोहोबत्तें यहाँ आज़ाद घूमती हैं
तीर की हसरत दांत की छाप ले कर जीती मरती  हैं।

अभी-अभी तो यह जंगल धुला ह है धूप में
हसीन वादियों और शर्मीले झरनों से लदा हुआ है
कहीं उड़ती चिड़िया कहीं बचपन है
शाम ढलते ही यहाँ  कोहराम  सा  मच  जाता  है।

मोहोबत्तें - जानवर एक होड़ में
क़त्ल  की  परछाईयों  में  गुज़ारा  करती   हैं
हसरतों का जंगल घना है
यहाँ  सिर्फ  शिकार  की  ललकार सुनाई  देती  है।

दूर  बैठा  दिल  की  शिकारगाह  में
मै  एक  शिकारी  साध  लगाये
भालू की  खाल, भैंसे के  सींग, शेर  के  सर के  बीच
नक़्शे  मचान  पर अपने  कच्चे  तीरों  को  धार  दे  रहा हूँ

~  सूफी  बेनाम



सुबह की चाय


सुबह का समय है और इंतज़ार है,
एक चुम्बन का, जो रात का नशा खाली करे
आओ अपनी आगोश में भर लो.
इस बिस्तर की नमी में
तुम्हारी खुशबू की कमी है
कही आस पास हो तो चले आओ।

सुबह का समय है और इंतज़ार है,
तुम कहीं दिख नहीं रहे हो,
न ही कोई आहट, आवाज़ है
मैंने तुम्हारे लिए भी चाय छानी है,
इसमें डली लौंग की महक चढ़ रही है,
कहीं आस पास हो तो चले आओ।

~  सूफी बेनाम



दूसरे छोर पर





कैसे मिलेंगे तुमसे ,

फिर घुल घुल के।

कैसी सुबह होगी,

जब मिट कर के जियेंगे।

रास्ता लम्बा बहुत था,

और इमान बने थे गिर -गिर के।

कैसा सफ़र था यह,

यह धुआं फिर उठ रहा है।

उसकी महक देह्केगी,

मेरी रग-रग से।

कैसे मिलेंगे तुमसे ,

फिर घुल घुल के।


~ सूफी बेनाम



Tuesday, May 14, 2013

अलविदा

मौसमी ये फूल कब तक
डाली से लिपटकर
रोज़  मुस्करायेंगे ?
कबतक खुलकर खिलेंगे ?
सूखी इस नाभि रज्जु से
अब जीवन रस नहीं आता।

बेबस सारी पंखुरियाँ
जीवन मधु-तृष्णा से मतवाली
रूठकर ऊँची उस डाली से
उम्मीद में नीचे को आ गिरती हैं।
कि धरती जो इस मधुरस की,
इस अमृत-धार का सागर है,
सिमट के उसके अंचल में
जीवन की कुछ तो आशा हो ?

पर इस हरारत, इस तपिश,
इस जलन के मौसम में
कुछ देर तो सिन्दूरी रंग संभाले
पर मुस्कीर आंच के मस्लाख में
थोड़ी ही देर  में सूखे पत्तों,
नम घास और गर्द के रंग में खो जाती हैं।

सुना  है आज टहनी  पर
किसी सूनी सुबह के आलिंगन से
मुझसा एक गुच्छा सुन्दुरी
इस काइनात की सूनी हसरत पर
कुछ पल गुलिस्तां सजाने को
फिर खिल  है...........

~ सूफी बेनाम

मुस्कीर - intoxicated ; मस्लाख - slaughter - house ; नाभि रज्जु  - umbilical cord.








Thursday, May 9, 2013

सत्य की पहचान



थी काली गुफा 
अँधेरा काला-घना 
थी दिशा न कोई 
पत्थरों से टकराता था 
दर्द एहसास दिलाता था 
कि  निशब्द-सूनापन है 
अकेलापन था और 
आस थी कब बाहर निकलूँ।

तभी कहीं से सांस किसी की 
आ मिली, मेरे साथ चली 
तभी किसी ने एहसास पाकर 
करीब आकर हाथ थामा चूम लिया।
पता नहीं था कौन है वह 
दिशाहीन इस कन्दरा में 
किसी का साथ होना ही बहुत था।
हाथ थामे हम सँभालते रहे चलते रहे।

अचानक गुफा का मुंह मिला 
हाथ छोड़े दौड़ पड़े आज़ादी को 
रौशनी ने आँखों को सिहर दिया था 
एक दूसरे की पहचान का एहसास नया था 
हमने पहचाना कि हमसफ़र हमसा नहीं है 
यह सच-उजाला दिल को बिलकुल रास न आया 
किस सत्य पर हम बदन हम, हम सफ़र हम
छोड़ दे साथ एक- दूसरे का ?
क्या रौशनी की सत्य की ज्ञान की 
सही और गलत की यही पहचान है? 
यही अनुप्रयोग है ?

Wednesday, May 8, 2013

सब्र

कहीं है अस्मां सहमा
काली धुंध से घिर कर
बिछा बारूद सा आशिक
छिड़क कर आग सांसों की
चला है रू-ब-रू होने
किसी मौला की मजलिस में
कफन कर चलो इसको
दफन कर चलो इसको
छुए न किसी भी खता से
लपट की सांस भूले से
जगे न फिर मुहब्बत में
मुजल्ला बारूद नशे में चूर।



फ़कत है बात बस इतनी
तुमने कई बार कोशिश की
बुझी ना आग, पानी से
ना ही थी आस दिल में सधि,
दारू-ए-बंदूक जब सीने में।
क्यूं बेमंज़िल सा है यूं पड़ा
सिमट के आज गोले में?
लपट-बारूद तदसुन से
क्यों न लुक्वाल बारिश हो
धधक के अस्मां बहके
झुलस कर आज तुम सुन लो
सिसक इन आग शोलों की
धुआं भी शून्य तक उठकर
परिंदों की परवाज़ को छू ले
समा कुछ और पहले हो
सफा कुछ तो अब बदले।



बेकरारी आज होने की
लपट से आज सीने की
रुका बारूद बस सुन कर
तुम्हारी आह! सपनों पर
बड़ा बेमर्म होना है
तहम्मुल इम्तेहां है ये
इन्हीं कुछ शोख रिश्तों का
बिना अंजाम तक पहुंचे
निरे बारूद ही रह गए।
झुलस के तुम नहीं जीते
बरसती आग शोलों से
सजो तुम गुल की चाहत से
बस यह ही दुआ मेरी।



पिए जब शाम मस्ती में
खिला जब यारां ! यारां ! हो
झुका इमान सजदा कर
दहक ना आग शोलों की
हो बारूद की किस्मत में।
बिखर कर ज़िन्दगी देती
खिली जो तपिश बसेरों में
दहक बारूद की उसमे
भरे धमाक होने की
वहां कोई नहीं जीता
दहक तो ताप देती है
उसी से ज़िन्दगानी है
कुछ हमसे दूर बस है व़ोह
दमकता आफताब है व़ोह

~ सूफी बेनाम





meanings

मुजल्ला - चमकदार - shining ; तहम्मुल - internal burden - forbearance - patience ; शोख - शरारती naughty ; आफताब - सूर्य sun ; सफा - purity; लुक्वाल- conflagration