Thursday, April 28, 2016

हमराज़ अगर बन जा कुछ और कहें हम भी

एक बार का सौदा है तारीख बदलने का
हर बार तुमे रोका तकसीर संभलने का

काजल की कोरों पे क्यों उल्झा ये सफर लम्बा
शायद न रहे आसां अंदाज़ मचलने का

हमराज़ अगर बन जा कुछ और कहें हम भी
एक राज़ दीवानों का कुछ साथ पिघलने का

बातें ही रही उलझा महसूस नहीं है कुछ
उम्मीद बना बैठे कुछ ख्वाब सफ़ीने का

हर बात पे लड़ती है कट-खैनि ग़ज़ल है वो
कुछ प्यार उमड़ने दे दिन साथ गुजरने का

~ सूफ़ी बेनाम


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