Sunday, April 24, 2016

इरादा और था लेकिन सुला दो

गिरह:
इरादा और था लेकिन सुला दो
चराग़े बज़्म की अब लौ घटा दो

मतला:
मुबाद्ला नेक है उनको बता दो
ज़रा जी लें कभी इसकी सला दो

थकी आंखें बुझा सा मन तुमारा
दिलों को पास आने की सज़ा दो

बुझा कर रख सको तो रख के देखो
नहीं तो जल सकें इतना मिटा दो

इबादत ढूंढती है आशना फिर
अगर नासाज़  हो तो तुम बता दो

बनी हैं हसरतें कुछ उन की सांसें
इरादा साफ है उनको बता दो

ग़ज़ल में हो रहा है ज़िक्र आओ
कहीं उलझो नहीं बस आसरा दो

बड़ा डरपोक है आशिक़ सुनो तुम
फकत बाहों में भर के तुम सुला दो

~ सूफ़ी बेनाम

( कुछ शेरों के लिये माफ़ी, लेकिन अधूरा नहीं लिख सका इनको)



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