Sunday, December 15, 2013

तख्ता -ए -कब्र

हर शहर  में 
एक पत्थरों का बाज़ार होता है 
यहाँ रंग बिरंगी चकलियों को 
तराशा जाता है 
इनमे नाम गोदे जाते हैं उनके 
जिनको अब कुछ इत्मिनान है 
इंसानी रिश्तों कि विरासत से। 

पत्थर की नाम गुदी चकलियों को 
उस ज़मीं पे सजाया जाता है 
जहाँ वो अपने अधूरेपन की आवाज़ 
फ़िज़ा तक पहुँचाने को चुप चाप दर्ज हैं 
एक पैगाम में बिखरकर। 

इत्तेफ़ाकन सारी यादें और उम्मीदें 
पत्थरों पे ही उभर के आती हैं 
उम्मीद है तुम भी अपना अधूरा रिश्ता 
एक पत्थर गुदे नाम की ओट ले कर 
जी सकोगे एक चिराग दान बनकर। 

~ सूफी बेनाम 


Tuesday, November 26, 2013

गुज़ारिश ...

इन पे दस्तक दे पूछ रहा
क्यों चला गया क्यों फिर आया?

क्या कोई यहाँ पे रहता था
मेरी झूठी याद लिए ?

क्या कोई और यहाँ पे आता है
टूटे-झूठे ख्वाब  लिए ?

कुछ कमरे थे यहाँ सजे  हुए
या धूमिल हैं यादें मेरी

बिछड़ी -कमज़ोर कुछ  आवाजें
बिखरी मरे कानो पर...

टूटी सासों की दरख्वाजें
इन सूनी दीवारों पर..

गर कोई यहाँ से गुज़रे तो
कहना कोई नहीं आया इन टूटे खहंडहारों में

~ सूफी बेनाम



होश

तेरे हुस्न के तरीकों को मैं पहचान तो लूं
तेरे हुस्न के तरीकों को मैं पहचान तो लूं
जाने फिर कब होश में आऊं घुल जाने के बाद।

~ सूफी बेनाम




तरीका : A tariqa is the term for a school or order of Sufism.
This verse is a sufi expression that expresses the desire of a disciple to understand the shell of the world, the order, before his "I" his "ego" looses itself or becomes one with the discipline, the world, the beauty of the creation.

I love this verse and have not been able to add or subtract anything from it since it was written on a very special day 15th November this year. The verse feels itself complete within just these three lines.

Tuesday, November 19, 2013

ताज.…

कैसे बेवजह पिरोती हैं
ये नोकीली मीनारें
बादल के बेज़ार टुकरों को ?

कबसे  इस अब्याज़ पत्थर के
पाक दिल कि आगोश में
एक अधूरी महोब्बत की कब्र है बनी ?

क्यों  है ये झीने दुपट्टों सी
जालिओं से ढके सीने के
गुबार को ये गुम्बज़ सधा ?

है ये कैफ़ियत इंसानी हाथों की
या किसी खोज में तराशे
ये संगेमरमर के उजले टुकड़े ?

है  गुलज़ार  ये ताज
किसी फ़रियाद को
या मुझे है  ऐसा दीखता ?

जैसे किसी शौक़ीन शायर का
चिकन का बेसिलवट कलफ़ लगा कुर्ता
स्त्री कर पहनने को तैयार हो

और मेरे दिल का तसव्वुर  
किरणों कि थिरक से आँखों को
गजराए चारबाग़ कि खुशबु से चौंधियाने दे।

जाने  किस मिट्टी कि थी वो
स्तम्भ में दबे जिसकी महक
महोब्बत को दिल के मक़बरे तक खींच लाये।

~ सूफी बेनाम



तसव्वुर - conception, reflection.
स्तम्भ - plinth
गुलज़ार - flourishing
कैफ़ियत - intoxication
अब्याज़ - white
बेज़ार - unhappy, annoyed

Friday, October 25, 2013

सहर



मूंह-अँधेरे मैंने एक
चिराग जलाया था
कुछ देर ख्याल करने को
कि दिन गुज़रकर क्या करेगा।

जब सुबह को अफरोज़ करने
रश्मियाँ आगे बढीं,
तो, घरों में कमरों में,
अँधेरा बढ़ता रहा।
फिर एक पूरा दिन
लग गया है इसको खींच कर
अपने कमरे को शाम तक
सजाने में, चमकाने में।

उम्मीद रहती है कि
समझ तो पाऊँ कि
किस आज़ादी की चाहत को,
या मेरे घर-आंगन की खबर-खुशबू देने
खुदा को, हर रोज़, ये उजाले,
असमान में बिखरकर
सुबह कर देते हैं।

~ सूफी बेनाम


Sunday, October 13, 2013

ये कातिल मेरी बाहों में .......

बेशौक तो नहीं पले
ये कातिल मेरी बाहों में
सीने के, आस्तीनों के,
बेअंजाम तो नहीं ये कारवां ?

कौन समझा  है
कि कातिलों के इस बाज़ार को
करार नहीं
ए दिलबर ?

कौन  कहता है
की खंजर, चाबुक, बिंदिया, मेहन्दी
के जुल्म, अदाये-शौक
मेरे जिस्म पे चल कर पूरे हुए ?

एक ज़माने से जुटा कर अपने
कातिलों का साज और सामान
हमने इस मोहोबते-रस्म की
दुआ मांगी थी।

ख्वाइशों के नाज़ -ए -नाखूने बहार
हुए आर-पार, कई बार
रिसते ज़ख्मों से भरने की उम्मीद
इस जिस्म की शहवत हज़ार।

ये नासमझ दिल रुकता नहीं था
दर्द-ए - गूंज की उम्मीद को
ये बेथक, बे-इन्तेहां  कातिल
आते ही रहे।

कभी एहसास न कोई
ज़िन्दगी की पहचान बना ?
क्यों बने  वो कातिल वो खंजर
बस यादों के निशां ?

आज फिर हम बेसब्र हैं
एक तीखी चुभन को
जो रूहानी अब्र को जझकोर कर
मेरे जिस्म को तोड़ दे ?

तुम ये बाज़ार सजाये रखना
सुना है नये दौर के
कुछ नये कातिल
पैनेले हथियार ले कर आयेंगे।

ये मोल भाव का रिवाज़
चलता ही रहे।

~ सूफी बेनाम



Friday, October 11, 2013

…………. ऐ लखते जिगर

कोई एलन न कर, ऐ लखते जिगर
यहाँ इकरार के कुछ, लम्हे बाकि हैं।

नहीं पता कि कब बिछड गये थे हम
बड़ते गये किसी ज़िद्द में या रस्ते बदल गये।

चलते जाना है कि कुछ इंतज़ार करें ?
पनाह राहों में मिलती है बसेरॊन के बीच।

किस होड़ में हो तुम, खबर नहीं हमें,
मुनासिब है परेशां हो जज़्बे मक़नातीसी से ।

चाह नहीं किसी से मिलूँ इस कबुतरखाने में
यहाँ उड़ने को हर वक़्त बेताब परिंदे हैं।

बात जिरह तक होती तो यक़ीनन जीत लेते हम
अब ऐतबार किसी और दुनियां में जीतेंगे।

बिखरने का गम नहीं, ए महोब्बत ये समझो
यहाँ पर सिर्फ घात पे विश्वास है भरोसा करने को।

हर उम्मीद पे रुकते थे कुछ देर तक, पहले हम
अब मूँद आँखों में ज़िन्दगी बेहतर सुलझती है।

कही रुकना पहुंचना तो इतना बतला देना
जाने किस-किस खबर को अब भी सांसें तरसती हैं।

है तड़प यूं नहीं कि खंजर दूर तक घोंपा
मालूम तो हो मेरी सांसो से किस-किस को बेचैनी है।

थोड़ा परेशां रहेंगे कुछ देर यहाँ चाहने वाले
चुनिन्दा यादों में जीना मुझे मंज़ूर ज्यादा है।

बात ख़त्म ना हो पायेगी गर लिखता ही जाऊँगा
ग़ज़ब ये हादसा है इसीमे समेट दे मुझको।

~  सूफी बेनाम




जज़्बे मक़नातीसी - magnetic attraction.

Tuesday, October 8, 2013

कि ज़िन्दा हम भी हैं

इतने हलके में न लो,
कि ज़िन्दा हम भी हैं
थोड़ी रफ़्तार तो बदलो,
कि बेवक्त हम भी हैं।

निकालें रूह से रिश्ता,
हयात की तर्ज़ुमानी को
रहे नहीं वाबस्त माज़ी से,
कि गुनहगार हम भी हैं।

बना लें जुनू सा किसको,
बादे-मुखाल्फ़ि की चाहत है
बचश्मेतर सही पर भटके नहीं
किसी सलाफ़ के वारिस हम भी हैं।

तेरी आँखों से हो रिश्ता
मेरी नज़मो के सुरमे का
नर्म ज़ेरे-हिरासत की महक
को बेक़रार  हम  भी हैं।


~ सूफी बेनाम



बादे-मुखाल्फ़ि -  wind against the direction of movement sp of a boat, वाबस्त - attached,  माज़ी - past, बचश्मेतर - eyes drowned in tears, सलाफ़ - pious muslim sunni ancestors who lived within 400 years of prophet mohd., ज़ेरे-हिरासत - captive in a deep embrace, तर्ज़ुमानी - translation, हयात - life.

Monday, October 7, 2013

नज़्म

मैंने अपने दो कच्चे मिसरों को
तुम्हारी नज़्म के साथ
डायरी के पन्नों में लपेटकर
साथ सुला दिया है।

बुक - मार्क भी नहीं लगाया है।

सिमटे सहमे वो कच्चे मिसरे
तुम्हारे अंदाज़ खोज ही लेंगे
एक डिक्शनरी भी साथ रख दी है
गर बात आगे बड़ी तो खुद बा खुद समझ लेंगे

उम्मीद है रात महफ़िल
तो सजी ही होगी
और हमारे सवालों को
एक नज़्म ने छुपाया होगा।

~ सूफी बेनाम


सौदा

लम्हों की भारी किश्तों पर
कुछ और ज़र्रे बहके होंगे
कुछ कीमतें टूटी होंगी रिश्तों की
सोचता हूँ  आज फिर बाज़ार चलें।

सुर्ख-फरेब की झिलमिलाती दुकानें
के महंगे-सस्ते सौदों पर
छोटी-बड़ी कीमतें देकर
सब बिकने को तो आये हैं।

~ सूफी बेनाम


शौक

मेरी रिहम को
इतने करीब से देखा न कर ए दिलबर
ये ज़ख्म शौक के इस जानिब पाल के रक्खे हैं
कोई रिज़ालत नहीं है यहाँ
ये ज़िन्दगी को अंजाम की दुआ देते हैं।

उसे यूं हयात का मर्ज़ हुआ
जो रिस्ता रहा लबो-लहजा बनकर
वफ़ा तो फुर्सत में नब्ज़-ए-सबक बनी
हमने भी उसे प्यास पे बुझने ना दिया
उल्फत से जलायेंगे उसे पानी बनकर।

~ सूफी बेनाम

रिहम - womb;  रिज़ालत - low-deeds; जानिब - side; हयात - life; लबो लहजा - articulation, way of speaking.


Thursday, October 3, 2013

सौदा

लम्हों की भारी किश्तों पर
कुछ और ज़र्रे बहके होंगे
कुछ कीमतें टूटी होंगी रिश्तों की
सोचता हूँ  आज फिर बाज़ार चलें।

सुर्ख-फरेब की झिलमिलाती दुकानें
के महंगे-सस्ते सौदों पर
छोटी-बड़ी कीमतें देकर
सब बिकने को तो आये हैं।

~ सूफी बेनाम


नज़्म

अब तो भीग चुके
बरसात को
बादलों के गरजने
के पहले।

जाने क्या छूटता 
सा पीछे रहा 
एक  रोज़ जो आसमा 
था पहले। 

अजब एक इकरार को
ज़िन्दगी आगे बड़ी
जहाँ सब कुछ थमा-थमा
था पहले।

मेरे दिल के निशां 
महसूस तो कर 
ज़िन्दगी में तर्जुमा आने 
के पहले।

कुछ मुनासिब ना सही
एक नज़्म तो हो
और नये रास्ते समझ आने
के पहले।

~ सूफी बेनाम


Thursday, September 26, 2013

शोर

शोर सड़क का और
दिन का कोलाहल थमा
तो घर पर बच्चों
के लड़ाई झगड़े
बर्तन , घंटी , पानी
कभी सीरियल कभी
चीख़ पुकार
रात को ए सी की आवाज़
खिसकती चिटकनी
घड़ी की टिक-टिक
और फिर सांसों की खुशबू - उलझन!

कुछ देर को लगता रहा
कि क्यूं इतनी आवाजें
रहती थीं पार करने को
क्या तुम्हारी सांसो
तक पहुँचने को ?
फिर लगा की
श्रंखला की एक कड़ी
जिसमे छाँव दर्पण रही
मन भीचने को
एक सहारा रात का था
ज़िन्दगी वहीँ से शुरू होती थी
हर रोज़ शोर में बदलकर।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, September 18, 2013

अधूरी- मुलाकातें

मैंने भी सबक यही लिया इस दोस्ती से,
आग तो चिंगारी से लगती ज़रूर है।

जिस तरफ झांकना भी हमको था मना
आस दर्द को उस तरफ से आती ज़रूर है।

रोज़ मिलने से भी कुछ होता नहीं रफ्ता-रफ्ता
मेरी यादें चंद लम्बी दोपहरों की कर्ज़दार ज़रूर हैं।

अधूरी इन मुलाकातों से हम उब चुके हैं
कभी-कभी काजल और बिन्दी को बेताब ज़रूर हैं।

हुस्न को जिस्म से नहीं महक से समझकर देखेंगे
ज़िन्दगी नये नये ज़रिये दिखलाती ज़रूर है।

मेरा क्या है बेनामी की शौहरत कितनी भी हो
इन मुलाकातों को बईमान जस्बे कबूल नहीं।


~ सूफी बेनाम







Saturday, September 14, 2013

बदलाव

ज़िन्दगी को एक बहाव
की ज़रुरत है
चाहे वो पसीने का हो
या फिर बहाव खून का
चाहे वो जिस्म से बहे
या जिस्म में बहे।

जब भी हमने रुकना चाहा
या ठहराव लाये
या किसी को चाहा
या किसी इकरार को ठहरे,
वहीँ या तो मेरी चाहत बदली
या हम ही बदल गये।

ज़िन्दा दिल ज़िन्दगी
ठहराव पसंद नहीं
यह सोचती नहीं की है ज़रूरी
दो पल को सुस्ताना,
सोचना, महसूस करना, अपनाना
रुकना या बस जाना।

उसको एक बहाव की
ज़रुरत है
कभी लहू
कभी नुफ्ता
कभी पसीना
बदलाव ज़रूरी है ज़िन्दगी को।

`~  सूफी बेनाम


नुफ्ता - passion fluids (sperms).

ख्याल

दिल की दो परत ऊपर
एक ख्यालों का खुबसूरत बागीचा है
यहाँ का मज़हब महोबत है
और चाहत ख्याली है
दिखता भी सिर्फ़ दिल की आँखों से है।

जब मै शान्त बैठा रहता हूँ
अपने बिस्तर की किनारी पर
तब एक ख्याल धीरे से
मेरे दिमाग की लियाक़त पर
चमकता है,कौंधता है, उतरता है ।

उसको पूरी-अधूरी तरह जकड़ता हूँ
शब्दों के गोशा में
पर बशर-ए-अर्क की नखत से
पहुँच के बाहर हो जाते हैं,
शर्मा जाते हैं, उड़ जाते हैं ।

मै कई बार कूदता रहता हूँ
बच्चों की तरह, उनको पकड़ने
पर मेरी मुट्ठी की कैद कमज़ोर है
ये सेमल के बिनौले पहुँच से दूर हो जाते हैं
खो जाते हैं, बेनाम आसमान में।

उनको आज़ाद अपनी पहुँच से दूर,
देखकर तस्सली होती है
वो भी बशीर-ए-कैद पे मुस्कुराते हैं
पर सुना है सूफी के धिक्र से उलझकर
थम जाते हैं, कलम होने को ।

उम्मीद है हमको कि आने वाले समय से
कुछ सुखनवर इन परतों के तसव्वुफ़ को
पड़ेंगे, जियेंगे और कुछ नया लिखेंगे
तब मै भी एक ख्याल बनकर इन
सेमली बिनौलों को कुछ दूर उड़ा ले जाऊँगा।

~ सूफी बेनाम





लियाक़त - capacity, range; बशर-ए-अर्क - human substance; नखत - fragrance ; गोशा  - hut;

काज़ा

एक तनहा सी
साँस पर
जहाँ मै
तड़प  रहा था
उस दो पल की
महोब्बत को-
उस बेसुधी में
दर्द अपना
मुक़द्दर लेकर
मेरे पास आया
कांपता झिझकता
खुद को संभालता
और कहता था...
चाहत की
तड़प से बना था
अंश मेरा
अब महोब्बत की
ज़ीन पे जिंदा हूँ।
क्यूं रहा बेखबर
अपने जिंस से
कैसी रंज सीने में
कि मुझे खुद से
बिखेरता रहा
मेरा ख़ालिक,
और हर बार
लौट के आता
मुझे मिटने को।

~ सूफी बेनाम  


ख़ालिक - one who gives birth ( महोब्बत in this case); ज़ीन - saddle; जिंस - of ones kind; काज़ा - fate

मदहोश

हर कदम ख्वाब तक
पहुँचते देखा है
ज़िन्दगी को कभी शोर
नहीं करते देखा।

ज़िन्दा रहने की ज़रुरत
बस रही हमको
ख्वाइशों को हमने
क़दमों पे चलते देखा।

एक मुलाक़ात से मेरे
रूह्बरू हों लें तो
एक याद पे
ज़िन्दगी जी लें क्यों ?

शक्ल तो तेरी
कभी मैं जान न सका
रात को सायों में
परछाईयां भी गुम थीं।

थी इतनी करीब
जिंदगानी मेरे
की सांसो का सिर
पहचान न सका।


~  सूफी बेनाम





बाघा जतिन

हम एक बाघ का शिकार करके
उसकी खाल उतार कर ले तो आये
पर उसकी दहाड़ को समेट न पाये
ना ही दिखा सके वो रंजिश, न जस्बा
जिसपे हम मिटे थे जुनून बनकर।

वो जंगल भी तो अब नाराज़ से हैं
यहाँ कमी है उस खूं-रेज़ी की
उससे जीवन-जान का तक़वा था
न रहा बाघ तो हिरन भी जाते रहे
धूप और सायों के कफन से रह गये।

ख़त्म  इन मचानों का बंदूकों का वजूद
उस शिकारगाह में जलसे भी क्यूं होंगे
क्यूं कोई बेबस, प्यासे, बे-इख़्तियार नाखून
उस रंजिशी-रिश्ते में अपने हिस्से पर
नफ्स के निशां छोडेंगे।

मुझे ख्वाइश न थी सिर्फ खाल की
इससे ढकी धड़कने,वो जस्बा, वो रंजिश
वो आरज़ू - सबकी ज़रुरत है
इन रिश्तॊ के जंगल में इस फिरदौसी दुश्मनी को
मै फिर से जीना चाहता हूँ, इस बार कुछ ज्यादा।

~ सूफी बेनाम



खूं-रेज़ी - fierceness; तक़वा - balance;

This is a small dig into the skin of relationships that we live. Bagha Jatin - a historic figure in Indian freedom Struggle, killed a tiger when he was sixteen. The fierceness of his combat cannot be understood by just facts. It got concluded in a title. So are our relationships. The primordial reason that brings a relationship into existence is often lost, leaving names and facts.

Wednesday, September 11, 2013

आल्ता

सुर्ख वो सपनों की परत
जहाँ तुम चोरी चोरी जाते हो
उसकी मिट्टी के कुछ निशां
अल्ताई तुम्हारे पाओं में।

सुर्ख चाहत का बेसिरा नशा
जो रहते रहते ढलता है
अब भी एक लकीर बनकर
पावों के धीग पे खिलता है।

कुछ आस करीबी सपनों की
दिन धीरे धीरे ढलता है
माटी के दिए की बाती पर
इस शाम को लेकर जलता है।

हर बार तुम्हारे जीवन को
हर सौम्य सिन्दूरी आशीष रहे
हर साल तुम्हारी तीज पर
किसी चाहत का पैगाम रहे।

~ सूफी बेनाम


Monday, September 2, 2013

बेफजूल

ये सुबह बेफजूल परेशां है कि रात कब होगी,
बेवजह बहकती जाती है मुलाकात की तरह।

रात को एक बदन है जिसके साथ सोये थे,
दिन में क्यों इस शक्ल को पहचानते नहीं।

क्यूं मेरी  आंखें किसी और को तरसती हैं
क्यूं नहीं इन्होने कभी हमारी तरफ देखा।

क्यूं है एक मुखोटा हर आरज़ू की पहचान को
क्यूं हर शय एक नाम से जानी जाती है ।

सिर्फ एक चेहरे में कैसे रहूँ मै सिमटकर
एक शारीर कुछ कम रहा खुद को बसाने के लिये ।

भीड़ के कई चेहरों में खुद को ढूँढना मुमकिन रहा
इतना तवजो दी ख्यालों को की खुद जस्बात बन बैठे ।

ना जाने क्यूं इस साये को रौशनी की चाह हो उठी
पर ये जिस्म बीच में आ ही जाता है ।

क्यूं मेरी मज़बूती को मजबूरी समझा
दखल ख्याल की रही नहीं नासमझियों पर।

~  सूफी बेनाम


This one needs an explanation: Verse 1- This life slipped to its end on a relationship. Verse 2 - In the night  I sleep in my body, but in day do not recognize my face. Verse 3 - What do my eyes want other than me, why do they not look inside. Verse 4 - Why do we have to name people and things, when everything is primordially the same. Verse 5  - How can I limit myself within just a face, a  body. Verse 6 - I can find myself in many faces, life is similar in emotions and events, I trusted in emotions and hence find an echo in many bodies, many Selfs. Verse 7 - Why is it that the Shadow (self/ego) seeks light, the body of desires always stands in between. Verse 8 - there is some naughtiness in the complete construction, my strengths have been understood as my shortcomings. I can understand and try to unveil the Truth. But why this long route, when it all could be simpler. Looks so futile.

Thursday, August 29, 2013

नक्श


किसी बेलगाम ने उड़ते हुऐ,
उस बताल आसमान के करीब से,
एक बेदरेग नक्श बनाया है
इस असीम ज़मीन का।

यहाँ  हर तरफ दिशायें हैं,
मौसमों का ताना बाना है
और जिस्मानी दूरियों पे
मौका-परस्त समय बदलता है।

यहाँ लकीरों से ही
दीवारें, रास्ते और दरिया हैं
सुर्ख, सुरमई, फिरोज़ा, नीलमइ
सर-मस्त रंग-दावतें हैं यहाँ।

तुम्हारी गली को मैंने देखा
पर अजनबी निशान सा पाया
और वो खँडहर जहाँ हम मिलते थे
उनको पहचान न पाया।

किसी ने  ये नक्श सपनो सा बनाया है
वैसे ही जैसे हम अँगुलियों को फेर कर
रेत पे नाम लिखते घर बनाते रहे
और दुनिया को बच्चों की गेंद सा गोल समझते रहे।

~ सूफी बेनाम


बताल - mysterious lie, बेदरेग- haste and thoughtless.

Sunday, August 25, 2013

तसवीर

मैंने कई बार कोशिश की
यहाँ उल्फ़त का ज़िक्र न हो
गुलों की बनावट का नसीब
कुछ खिले, कुछ मुरझाते रहे

फिजा ही गुनेहगार रही
इन फूलों के मुरझाने की
मुद्दई दफ़न ही सही
ज़िन्दगी के निशां देते रहे.

रेगिस* में क्यों दफ़न रहे
आशार-ए-जश्न के गवाह?
फिज़ा की कोई कली इनके करीब
भी तो मुस्कराहट बिखेरे

वो तो रहम था
जुबां का दिल-ए-दर्द  पे
कि सवालों से उभर कर निकला
और जवाबों में बंद तसवीर ही रही.

~ सूफी बेनाम



* रेगिस - used as desert; *आशार-ए-जश्न - celebration of life, liveliness

Friday, August 9, 2013

फिर ….

वो लम्हा जो गुज़रते हुए
अफ़सानो पर ज़ाया न हुआ
बस आह बनकर रहता है

वो अफ़साना जो बिछड़ती हुई
ज़िन्दगी में सिमट न गया
एक याद बना देता है

वो ज़िन्दगी जो बिखरती हुई
ख्वाइश से रुखसार न हुई
एक दर्द बनकर खिलती है

वो दर्द जो कोरे कागज़ पर
कुछ स्याह दाग देकर के गया
बेलगाम बना देता है

यूं न बहो मेरे साथ
लम्हों को फिर रोक लेते है
और एक नया दर्द जागते हैं

~ सूफी बेनाम


Wednesday, August 7, 2013

बरसात का सूनापन

 आज कुछ काम करने का
मन नहीं है
ये बरसाती ख्वाब मेरी रूह को
मेरे जिस्म के बाहर खींच लाये हैं
एक बार फ़िर इसको
भीगने का मौका मिला है
वो मेरी जिस्मानी घुटन से
आज भर आज़ाद है
और एक बेनाम जिस्म
बे-जुम्बिश, निकम्मा पड़ा है
ये आंखें भी देखती हैं एकटक
आज़ाद दिल का मंज़र
मेरी रूह के पंख भीग गये हैं
क्यूं मेरा नूर मुझसे दूर
आज़ाद बरसात में भीग रहा है
क्यूं मै नहीं भीग पाया ?
आज कुछ काम करने का
मन नहीं है
क्या बैठा रहूँ
यूं ही बे-रौनक, तनहा ?


~ सूफी बेनाम


निशान

तुम अपने  कुछ निशान
मेरे आस पास छोड़ गयी हो
कल रात का एहसास तुम्हारा
अब भी मेरे बदन पर
अपना अधिकार जताए रहता है
कुछ अँगड़ाईयां तो बिखेरी थीं
जब रौशनी ने आँखों को कुरेद था
और मै नहाया भी पर
जहाँ भी रगड़ता हूँ इस जिस्म को
पानी से बुझाने,
तेरे बदन की चाह महकती है
और ज़्यादा जलाती है,
सपने दिखाती है
एक महक रह गयी है जो
साथ तुम्हारे पैदा हुई थी
रात में चुम्बन पे जो किये थे वादे
वो दिन तक क्यों नहीं चल के आते ?
मेरी ख़्वाबों की डाली पे कलियाँ
लदी तो हैं, पर महकती नहीं
लगता है तेरे ख्वाब के भरोसे ने
मेरे बागीचे को
रात की रानी से सजाया है
लगता है रात फिर महकेगी
जब तुम करीब आओगे।

~ सूफी बेनाम


उधेड़-बुन

शब्दों की उधेड़-बुन चल रही है
लच्छा -लच्छा बन के अंदाज़ उलझे हैं
दिमाग में अजीब सा आवारापन है
तसवीरें कौंधती रहती हैं एक रील बनकर

कभी गुलज़ार की आवाज़ का फ़रेब
कभी इक़बाल की सॊच का अंदाज़
कभी ग़ालिब की बयां -ए -जिंदगानी
कभी तुम्हारे नफसानी चुम्बन का स्वाद

इस मजलिस में सुनने वालों के
ख्याल की पसंद पहुँच और पैमाना
कभी दूर से कौंधती एक मीठी आवाज़
इरशाद-इरशाद

मानो मेरे पीछे से कोई कुछ कहता है
और मै तुम्हारी आँखों में देख के लिखता रहता हूँ
कुछ खुद को भुलाने के लिए
कुछ तुम्हारे बदन तक पहुँचने के लिए

हर वक़्त यह एहसास भी रहता है
की ना तुम कहीं हो, ना मै कहीं
ना पीछे कोई कहने वाला
ना कोई मजलिस ना सुननेवाले

बस एक रूहानी जस्बा है
जो शब्दॊ को कात कर कतारों में बिठाता है
और फिर कतारों को बुनकर
एक चददर की पहचान देता है

सुनने वाले दाम लगाते हैं
कुछ खरीद पाने की हैसियत रखते हैं
कुछ बस छू कर वाह वाह करते हैं
कभी दूर किसी की नज़र दूसरी चादर को बढती है
एक पन्ना पलटकर।

~ सूफी बेनाम



Wednesday, July 31, 2013

तयककुन (reality)

मोहब्बत में तेरी ना सही ना सही,
ये दिल गुनहगार किसी का तो है ?
हार और जीत का फैसला क्या करें
अपने कातिल को खुदगरजी का शिकार क्या कहें ?

तकलीफ़ तो तुमको भी रही ए ज़िन्दगी
अब दर्द का इक़बाल ना सही ना सही
जी ही लो रस्मों-रिवाज़-ऐ-ख़लिश
किसी की बेलगामी को परवाज़ क्या कहें ?

और तड़प तो उन चंद अल्फाज़ों की थी
दुश्मनी, दोस्ती ना सही ना सही
लफ्ज़ों की बुनी चादर से क्या प्यार करें क्या रुसवाई
तुम्ही हो दर्द जगाये क्या कहें ?

मुझे गुमान है ए ज़िन्दगी अपनी राह पर
किसी का साथ ना सही ना सही
बेकार रहा तजुर्बा इस खेल में,
हर पल नया मोड़, हर रोज़ नयी बिसात क्या कहें ?

~ सूफी बेनाम


Monday, July 1, 2013

स्याही से बहा फिर एक ख्व़ाब

कोई ख्वाब स्याही से बहता रहा
और यादों में दायरे फिर घुल गये?

रुके तुम भी थोडा पर ठहरे नहीं
ख्याल में भी बेक़रार लहरों से थे?

ये हरारत नये मोड़ लाती रही
रात करवटों पे सहरा बदलते रहे

नींद आती नहीं अब सवालों को है
मुफलिसी क्यों आज चिरागों में है ?

किस नए ख्याल को अब ढूंदा करें
ज़िन्दगी हर फिज़ा को दोहराती जो है।

हो मुनासिब, ज़मी पे चल के तो दिखा
इस काफिले के गुनेहगार हुम-दोनो ही हैं।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, June 26, 2013

मै उलझा नहीं कभी सवालों पे

है नशे पे नशा यूं परत दर परत
क्यों तहों में ये सांसें बेजान हैं ?
हों कई कह्कशे यूं ज़िक्र दर ज़िक्र
जैसे इन रगों में कोई बेनाम है।

परेशां हैं सांसें सितम दर सितम
कसम सिलवटों की अब्र बेइमान है
कागज़ पर रिहाइश खता दर खता
वक़्त बढता रहा ज़ुल्मो की तरह।

जिये एक हसरत शक्ल दर शक्ल
आज रूहानी ये जस्बा शरमसार है
बेछाड़ते हॊ यारा कदम दो कदम
क्या रेतीले शहरों में कोई निशान है ?

सिली हैं ये सांसें जिस्म दर जिस्म
यहाँ का मसीहा कोई इंसान है।


~ सूफी बेनाम


Monday, June 17, 2013

एम्स्टर्डम - डी - वलेन्स डिस्ट्रिक्ट

बेपर्द शोलों की हैं मजारें यहाँ
नज़र ठहरी यहाँ हर इनायत पे है।
सर झुकता नहीं कि इबादत करें
पिघलते हैं इमान हर फेर पर।

इस कहकशाँ में कैसे ढूँढें ज़मीन
कही तो पांव पल को ठहरते नहीं
ए जिस्म मेरे अखलाक़ पर रहम कर
ये उधाडा हज़ारों सब बेजान हैं।

है शफ़ेअ शहवत की कर्कश यहाँ
मुफलिसी बाकिरदारों के चोगों में है
न कोई जान, न आशिक, न महबूब है
इन बेबस नर्म बाहों का जज्बा तो देख।

है मुनासिब यहाँ पर कोई भूल हो
और खुदाई के नखरों को मकबूल हो
क्यों न तू मुझको अपना तरीका बना
महफ़िल-ए-गुज़र थोड़ा सबात से चल।


~ सूफी बेनाम






कहकशाँ - Galaxy; अखलाक़- character; उधाडा - nudes; शफ़ेअ - one who argues; शहवत - sexual urge; कर्कश - sharp and rough edges; महफ़िल-ए-गुज़र - one who walks with you in the celebration of life; सबात - firmness.

Wednesday, June 12, 2013

थोडा नया मै पीने वाला / नशीली आशिया / सिगरेट

महज़ दो पल दिलासा है, हामी-तरंग सांसों में
सुकून कहते हैं फ़ाश होगा, इस कदर नशा चढ़ कर
गले को घेर लेते हैं तुम्हारी जिन्स के बादल
सिहर बदन में उठाता है अगर कश तेज़ खींचे तो।

जलती हो और फ़ना हो जाती हो अंजाम से पहले
दबा के बुझाने पर भी सुलगती हो धुआं देकर ?
कभी अंगार पहुंचे नहीं बेसब्र लबों के चुम्बन को
नशा छू कर गुज़रता है हमारी नफ़स में घुलकर।

खराकती है मेरी सांसें तुम्हारी तासीर सिने में
कशों में खींचे हैं ये जज़्बात नब्ज़ों तक
रिहा धुएं के छल्लों में हमारा जवाब अंजाम को
बसी है रोष तपिश की हमारी सुर्ख आँखों में।

बेबसी इन्तजार की अजब तरह से पालें क्यों ?
हॊश रहता नहीं हर बार तुमको सुलगने से पहले
ज़िन्दगी के नशीले तरीके बहुत दूर तक नहीं जाते
ये जिस्म भी क्यों फ़ना है इकरार से पहले।


~ सूफी बेनाम 



जिन्स - family ; फ़ाशा - apparent ; नफ़स - breath; हामी- agreeable

Monday, June 3, 2013

मेरी कहानी

कुछ चौदह साल का था मै
जब पहली बार जाना
एक जसबा जिससे हम
दिल की मुज्तरीबी को
लबो से लुड़का कर
शब्दों में बांध सकते है
और फिर खोलते समय
नये माइनों में जगाते हैं। (I learned poetry)

यह एहसास दबा रहा
मेरी हौसला- बुलंदगी पर
पर साथ देने को जगता
जब मुझे सबसे अकेला
या सबसे अलग पाता।
उधेड़ता रहा मेरी हरारश को
घुलता रहा मेरी नब्ज़ों में
उसका सुरूर उसकी उफ़न। (It helped at times)

जैसे मोहब्बत में
धीरे-धीरे करीबी बड़ते दो बदन
हर तरह का रोष, मुज़हामत
अपनी शक्सियत का पेचिदापन
रदद करते, उतार फेंकते हैं।
जैसे ख्यालों में ही बात हो जाना
और एक मुस्कान से दूसरी
मुस्कराहट का खिल जाना।
वैसे ही मानो
इस बे हरकती में
मै और वो जज़्बा एक हैं
अब अकेले में ही
परछाईयों को पलटना समझना
सोचना, बैठना, कहना
एक रंगीन महफ़िल के बराबर है
और नब्ज़ से ही नज़्म है। (poetry and breath is one after knowing life)

यहाँ इस किनारे से थोड़ा ही दूर
बहाव ज्यादा होता है
ज़रा भी पांव फिसले तो
पर तमाम कोशिशों के बाद
सांसों की रंजिश तोड़ना होता है
डूबना ही होता है
और आबाद है यहाँ
हर डूबने वाले।
काश एक और मौका मिले
फिर से पैदा होने का
ज़िन्दगी से हम एक बार आंखे
मिला के चलना चाहते हैं।
किसी गम किसी तजुर्बे पे नहीं
मासूमियत से डूबना चाहते हैं।
और बगैर इस जस्बे के
चुप-चाप जीना चाहते है। (I want to live this fullness from the beginning - even in my youth, all dreams should be LIVED, there should be no desires.)

~ सूफी बेनाम

मुज्तरीबी - restlessness ; मुज़हामत- inhibition.



Thursday, May 30, 2013

इख़्तियार

कई दीवारें और 
एक दरवाज़ा है यहाँ 
दुनिया से सिमट कर 
थोड़ी जगह अलग कर 
चंद पथरों को जुटा कर 
एक घरोंदा बनाया।
इस में दुनिया से छुप कर 
अपनी सांसों, हसरतो खलिश 
को पिरोया, जगाया, बनाया।
कुछ खुद के लिये 
कुछ अपनों के लिये।
पर अपने ही में 
घुला हुआ अँधेरा 
इस घरोंदे में घर कर गया है।
कुछ उलझन में,
कुछ बेबसी में 
बिस्तर के करीब 
की दीवार चटखा कर 
एक खिड़की बनाई है।
कुछ रौशनी कुछ हवा 
कुछ ताज़गी का एहसास इससे।
पर अब इसको इख़्तियार करने को 
दो परत पर्दों को भी झुलाया है।

जब मै चाहता हूँ ये निष्कपट हो जाते है 
जब चाहता हूँ खिड़की 
को दफ्न कर देता हूँ।


~ सूफी बेनाम
   

Wednesday, May 29, 2013

सांसें

जाने क्यों
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

भटकती हैं इधर-उधर
इस फिज़ा में जूझा करती हैं
कभी हवा बनकर परेशां बहती हैं।
मै बेसब्र, इन के बहाव में
कई बार आराम महसूस किया।

कल तो ये कुछ बादलों को
खिसकाकर, पलटकर ले आयी
और कुछ बूँदें छींट कर,एक पहचानी सी
नज़्म से मुझे भिगो कर गयी थीं।
आज इन वादियों-पहाड़ों के
बीच की दूरियों को ढक कर
इन बेसब्र सांसों ने, मेरे चरों तरफ
धुंध का एक चोला लपेट दिया है
और खुद को करीब महसूस किया है।

फिर भी
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

~ सूफी बेनाम




Tuesday, May 21, 2013

कवि / शायर


जैसे मानो कोई मज़दूर,रेज़ा, रिक्शा वाला,
जलती धूप की दाघ के असर से
अक्सर ही अपनी साध-सुध खो देता है
दूर दरख्त की नीरव छाया, उसकी प्यास बुझाने को,
हाला की महक उसके पसीने की,
उभार उसके जीने का एहसास, उसको  जीवन देती  है।

या  मानो कोई किसी उधार की छाओं तले,
प्रियसी के करीब बैठे-बैठे
एक संबंध-संबोध की आस  लिए
उसके दुपट्टे के छोर से मुह ढक कर
अपनी व्यकुल्त जताने या छुपाने को,
फूल, बरसात, बादलों और पंछियों की बातें करते हैं

या फिर समझो कि किसी कसक
को अपने रूंधे गले में दबाये
उत्तेजनीय रोग़न से भीगा लिबास ओढ़े
बंद कमरे की खलिश में अकेला कोई
एक माचिस को अपने दिल की बात कहे
जिस की लपट से, चिंगारी से वोह शांत होगा।

या जैसे कोई बच्चा, खेल कर  थका हुआ
अपनी भूख, अपने कपडे,
अपनी हालत शक्ल और अंदाज़ से बेसुध,
बिस्तर पर जा गिरता  है  या  बिखरता  है
और  खुली  आँखों से  रौशनी की  लहक पे
नींद में घुल  जाता है।

ऐसे  ही मानो कभी  कोई
बे -ख्याल कुछ बे - आज़म  कुछ गुनगुनाये
या फिर कोई फ़रेबी दिन को  रात कहे,
और  अपनी  बीवी  को  ख्वाब दिखा  के झुठलाये
या फिर कोई बेवजह, सच के आगे अपना झूठ जोड़  कर   बोले
तो  समझो वोह एक  कवि  है, शायर  है .

कुछ  लिख  पाते  हैं, कुछ  शब्दों  में डूब जाते  हैं
कुछ  कह  पाते  हैं, कुछ जी  जाते  हैं।


~  सूफी  बेनाम





Monday, May 20, 2013

बेपर्द




मुशायरे  की शाम है
लौ  को  आंचल  में  लपेटे
शमा  मेरे  करीब  है
उसकी  आंच  के  तले
आस  पास  का  अँधेरा;
मुक़र्रर - मुक़र्रर  की  आवाज़
इर्द- गिर्द  बैठे  लोगों  के  कहकहे
सब बेवजह,  बेकार ...
कैसे  लिखा  करें  ऐ   ज़िन्दगी
तुमको  एक  कागज़  पर
क्यूं आज  ऐसी  बेशक्ल  है  जुबां
यहाँ  बेमर्म  हैं  सुनने  वाले।
कागज़  पे  अक्षर  स्याही के नहीं हैं
ये   बेनाम  की जिंदा  नसों  का  लहू है।
इस पन्ने   पर  गुमराह  हैं  जिंदा  कुछ  ख़्वाब
ये  तो  आपस  में   ही  उलझे  पड़े  हैं
आगोश  में  भर  कर मायनों  को
मेरी  नज़्म   में  बेपर्द  पड़े  हैं
ना  तो  सलीका  है  ना  गिला  है
खुद  को  खुद  हॊने  का ।




दुनिया का आखिरी दिन



कोई तो हसरत हो जिसपे टूट जाएँ हम
कभी तो कहीं पे रुक जाएँ कदम
किस आवारगी में गुज़र रहा है यह सफ़र
क्या यह जुनू है।

बार बार अटकी है तुमपे नज़र
कई बार यह ख्याल दिल में आता है
क्या हमारी मोहब्बत
फिर एक तरफ़ा ही रहेगी।

बेसब्र एक ख्वाब ने
अपनी बेफिक्र-बेदर्द फितरत से
मेरी बुझी हुई हसरतों पर
दस्तक दी है।
कोई तो होश में लाओ मुझको
नहीं तो फिर से
हम एक तरफ़ा मोहब्बत जीयेंगे
एक जाम ख्वाब से सहारे ........
तेरे हुस्न की महक में
मेरी आरज़ू की खुशबू है



सुना है तुम परेशां हो



तुम्हारी ही पलकों पे पलते हैं
साज़  मेरे सपनों  के
सुना  है  तुम परेशां हो
आज मेरी ज़िन्दगी से
बताओ तो क्या मिलेगा तुमको
हमसे खफा होके ?

मै जी ना पाऊँगा कभी बेवफ़ा होके
क़ुसूर किसका है ?
यह हम नहीं जानते
अगर हम दोहरे होते
तो तुम्हारी आँखों के मोती
इस जहान से क्यों प्यारे होते ?

कैसे जीयोगे इस दुनिया में
हम से जुदा होके
किन आसुओं के सिरहाने
किस जिस्म की खलिश पर
बीतेंगी ये रातें
भूल मेरी रूह पर ली सौगात लेकर।

पर अगर कभी ऐसा लगे तुमको
कि साथ जीने में वो महक नहीं रही
या उन फ़िरदौसी चाहत में
जिसमे दिन -रात बहके थे
कोई खराई नहीं थी
तो भूल कर मुझको जीवन का रास्ता चलना।

शायद मैंने ज़िन्दगी के
कुछ सबक अधूरे छोड़ दिए
शायद एहसास यादों में जीने का हो अभी बाकी
और उनमे ही जीवन हो एक कसक लेकर
इतना बस मालूम हमको है
जब भी नाम आयेगा तुम्हारे दीवानों का
तो सब निशां मुझपर ही होंगे।



दीवानापन






आजीब है यहाँ की दुनिया का दस्तूर
ये सितारों भरी शाम को रात कहते हैं
रौशनी के कोलाहल में घुलते हुए ख़्वाबों को दिन
धुप से चोंधियती आँखों से क्या देखोगे
ज़रा सुकून से जी के देखो।



Sunday, May 19, 2013

शिकारी


दिल एक शिकारगाह है
हसरतों का जंगल घना है
मोहोबत्तें यहाँ आज़ाद घूमती हैं
तीर की हसरत दांत की छाप ले कर जीती मरती  हैं।

अभी-अभी तो यह जंगल धुला ह है धूप में
हसीन वादियों और शर्मीले झरनों से लदा हुआ है
कहीं उड़ती चिड़िया कहीं बचपन है
शाम ढलते ही यहाँ  कोहराम  सा  मच  जाता  है।

मोहोबत्तें - जानवर एक होड़ में
क़त्ल  की  परछाईयों  में  गुज़ारा  करती   हैं
हसरतों का जंगल घना है
यहाँ  सिर्फ  शिकार  की  ललकार सुनाई  देती  है।

दूर  बैठा  दिल  की  शिकारगाह  में
मै  एक  शिकारी  साध  लगाये
भालू की  खाल, भैंसे के  सींग, शेर  के  सर के  बीच
नक़्शे  मचान  पर अपने  कच्चे  तीरों  को  धार  दे  रहा हूँ

~  सूफी  बेनाम



सुबह की चाय


सुबह का समय है और इंतज़ार है,
एक चुम्बन का, जो रात का नशा खाली करे
आओ अपनी आगोश में भर लो.
इस बिस्तर की नमी में
तुम्हारी खुशबू की कमी है
कही आस पास हो तो चले आओ।

सुबह का समय है और इंतज़ार है,
तुम कहीं दिख नहीं रहे हो,
न ही कोई आहट, आवाज़ है
मैंने तुम्हारे लिए भी चाय छानी है,
इसमें डली लौंग की महक चढ़ रही है,
कहीं आस पास हो तो चले आओ।

~  सूफी बेनाम



दूसरे छोर पर





कैसे मिलेंगे तुमसे ,

फिर घुल घुल के।

कैसी सुबह होगी,

जब मिट कर के जियेंगे।

रास्ता लम्बा बहुत था,

और इमान बने थे गिर -गिर के।

कैसा सफ़र था यह,

यह धुआं फिर उठ रहा है।

उसकी महक देह्केगी,

मेरी रग-रग से।

कैसे मिलेंगे तुमसे ,

फिर घुल घुल के।


~ सूफी बेनाम



Tuesday, May 14, 2013

अलविदा

मौसमी ये फूल कब तक
डाली से लिपटकर
रोज़  मुस्करायेंगे ?
कबतक खुलकर खिलेंगे ?
सूखी इस नाभि रज्जु से
अब जीवन रस नहीं आता।

बेबस सारी पंखुरियाँ
जीवन मधु-तृष्णा से मतवाली
रूठकर ऊँची उस डाली से
उम्मीद में नीचे को आ गिरती हैं।
कि धरती जो इस मधुरस की,
इस अमृत-धार का सागर है,
सिमट के उसके अंचल में
जीवन की कुछ तो आशा हो ?

पर इस हरारत, इस तपिश,
इस जलन के मौसम में
कुछ देर तो सिन्दूरी रंग संभाले
पर मुस्कीर आंच के मस्लाख में
थोड़ी ही देर  में सूखे पत्तों,
नम घास और गर्द के रंग में खो जाती हैं।

सुना  है आज टहनी  पर
किसी सूनी सुबह के आलिंगन से
मुझसा एक गुच्छा सुन्दुरी
इस काइनात की सूनी हसरत पर
कुछ पल गुलिस्तां सजाने को
फिर खिल  है...........

~ सूफी बेनाम

मुस्कीर - intoxicated ; मस्लाख - slaughter - house ; नाभि रज्जु  - umbilical cord.








Thursday, May 9, 2013

सत्य की पहचान



थी काली गुफा 
अँधेरा काला-घना 
थी दिशा न कोई 
पत्थरों से टकराता था 
दर्द एहसास दिलाता था 
कि  निशब्द-सूनापन है 
अकेलापन था और 
आस थी कब बाहर निकलूँ।

तभी कहीं से सांस किसी की 
आ मिली, मेरे साथ चली 
तभी किसी ने एहसास पाकर 
करीब आकर हाथ थामा चूम लिया।
पता नहीं था कौन है वह 
दिशाहीन इस कन्दरा में 
किसी का साथ होना ही बहुत था।
हाथ थामे हम सँभालते रहे चलते रहे।

अचानक गुफा का मुंह मिला 
हाथ छोड़े दौड़ पड़े आज़ादी को 
रौशनी ने आँखों को सिहर दिया था 
एक दूसरे की पहचान का एहसास नया था 
हमने पहचाना कि हमसफ़र हमसा नहीं है 
यह सच-उजाला दिल को बिलकुल रास न आया 
किस सत्य पर हम बदन हम, हम सफ़र हम
छोड़ दे साथ एक- दूसरे का ?
क्या रौशनी की सत्य की ज्ञान की 
सही और गलत की यही पहचान है? 
यही अनुप्रयोग है ?

Wednesday, May 8, 2013

सब्र

कहीं है अस्मां सहमा
काली धुंध से घिर कर
बिछा बारूद सा आशिक
छिड़क कर आग सांसों की
चला है रू-ब-रू होने
किसी मौला की मजलिस में
कफन कर चलो इसको
दफन कर चलो इसको
छुए न किसी भी खता से
लपट की सांस भूले से
जगे न फिर मुहब्बत में
मुजल्ला बारूद नशे में चूर।



फ़कत है बात बस इतनी
तुमने कई बार कोशिश की
बुझी ना आग, पानी से
ना ही थी आस दिल में सधि,
दारू-ए-बंदूक जब सीने में।
क्यूं बेमंज़िल सा है यूं पड़ा
सिमट के आज गोले में?
लपट-बारूद तदसुन से
क्यों न लुक्वाल बारिश हो
धधक के अस्मां बहके
झुलस कर आज तुम सुन लो
सिसक इन आग शोलों की
धुआं भी शून्य तक उठकर
परिंदों की परवाज़ को छू ले
समा कुछ और पहले हो
सफा कुछ तो अब बदले।



बेकरारी आज होने की
लपट से आज सीने की
रुका बारूद बस सुन कर
तुम्हारी आह! सपनों पर
बड़ा बेमर्म होना है
तहम्मुल इम्तेहां है ये
इन्हीं कुछ शोख रिश्तों का
बिना अंजाम तक पहुंचे
निरे बारूद ही रह गए।
झुलस के तुम नहीं जीते
बरसती आग शोलों से
सजो तुम गुल की चाहत से
बस यह ही दुआ मेरी।



पिए जब शाम मस्ती में
खिला जब यारां ! यारां ! हो
झुका इमान सजदा कर
दहक ना आग शोलों की
हो बारूद की किस्मत में।
बिखर कर ज़िन्दगी देती
खिली जो तपिश बसेरों में
दहक बारूद की उसमे
भरे धमाक होने की
वहां कोई नहीं जीता
दहक तो ताप देती है
उसी से ज़िन्दगानी है
कुछ हमसे दूर बस है व़ोह
दमकता आफताब है व़ोह

~ सूफी बेनाम





meanings

मुजल्ला - चमकदार - shining ; तहम्मुल - internal burden - forbearance - patience ; शोख - शरारती naughty ; आफताब - सूर्य sun ; सफा - purity; लुक्वाल- conflagration

Thursday, April 25, 2013

बेखबर - बंदगी


न डगर रही न ही रही अब घर की तलाश,
न जिये कभी, न ही किसी पे मर के जले,
न मुड़ सके, न ही किसी मंजिल को फले,
न रुके कभी, न ही किसी सफ़र पे चले,
न खुद से जिये, न किसी पलकों पे पले,
क्यों बेचैन हैं इस ज़िन्दगी के चोले में ?
बेकरारी का कोई तो मुक़ाम होगा?
ज़िन्दगी की अनगिनित साँसों में ..
कहीं तो मेरा हिस्सा बयां होगा ?
बेखबर खुद से हैं हर गली- हिंडोले में ?
कहाँ खोये है कोई तो जगा लो हमको ..
कहूं कैसे खुद से कि कुछ तो कर-गुजरें?
ए ख़ू--यार थोडा तो तरस खाओ।

~ सूफीबेनाम




रात



उस करवट क्यों पड़े हो
ज़रा तो करीब आओ
इस करवट हम हैं यहाँ
थोडा तो बदल जाओ।

बिस्तर में फासले तो कभी भी
बढ़ ना पायेंगे।
उम्मीदों, गिलों, शिकवों को जगह
इतनी देदो यार।

पास पड़े इस बदन से
थोडा सा तो लिपटकर देखो
अँधेरे यह रास्ते अजीब हैं
थोडा मुझमे सिमट जाओ।

कुछ इल्जामो का लहू कालिख की तरह
चिपका है नज़र पर
अब एहसास तुम्हारा ही बाकी है
अपनी मुस्कराहट से रास्ता दिखाओ

उस करवट क्यों पड़े हो
ज़रा तो करीब आओ …....


~ सूफी बेनाम .