Monday, May 20, 2013
बेपर्द
मुशायरे की शाम है
लौ को आंचल में लपेटे
शमा मेरे करीब है
उसकी आंच के तले
आस पास का अँधेरा;
मुक़र्रर - मुक़र्रर की आवाज़
इर्द- गिर्द बैठे लोगों के कहकहे
सब बेवजह, बेकार ...
कैसे लिखा करें ऐ ज़िन्दगी
तुमको एक कागज़ पर
क्यूं आज ऐसी बेशक्ल है जुबां
यहाँ बेमर्म हैं सुनने वाले।
कागज़ पे अक्षर स्याही के नहीं हैं
ये बेनाम की जिंदा नसों का लहू है।
इस पन्ने पर गुमराह हैं जिंदा कुछ ख़्वाब
ये तो आपस में ही उलझे पड़े हैं
आगोश में भर कर मायनों को
मेरी नज़्म में बेपर्द पड़े हैं
ना तो सलीका है ना गिला है
खुद को खुद हॊने का ।
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