Wednesday, October 8, 2014

इमली -कोठी

मुनासिब नहीं था लौटना उसका
पर वजूद की खोज इब्तिदा से इन्तेहाँ तक थी।
उसकी हसरत -ज़दा नज़रों में तड़प थी,
शायद जीने का करीना जानती थी वो।

न जाने क्यूँ एक बार के लिए ही सही,
अपने भूले-गुज़रे  घर ले जाना चाहती थी वो।
मुझे दिखाना चाहती थी बचपन अपना
या खोए गुज़िश्ता से मिलाना चाहती थी वो।

और गया था मैं, यादों के शहर - हज़ारीबाग़
शायद जहाँ का आसमां तसव्वुर की हद छूता था।
जहाँ की तंग,  झिझकती, गुमसुम गालियां
तालाब के किनारे कच्चे घरों तक ही पहुँचती थी।

कहानियां जहां राजा के महल और शिकारगाह की
शहर के कोने में , जंगल की कछार पर बिखरी थीं।
सहमे -उजड़े से घरोंदों के पेड़ों से ढके चेहरे
इन सबको अपने दोस्तों का घर बताती थी वो।

इमली -कोठी की सड़कें तब से कच्ची ही रहीं
जहाँ के इंसान समय पे है नहीं फ़िरते - बदलते
गैर- मुत्ताबद्दल होती है किस्मत उन बसेरों की
शायद इतना ही कहना चाहता था ये सफर मेरा।

साथ उसके रहा और देखा - महसूस किया
शायद उसके बचपन को था मैं कहीं छू सा रहा।
या महोब्बत आइन्दा मुक़ाम से, बिसरी दीवारों से मिलने आयी थी
शायद वक़्त ठहरा हुआ था और गुज़र गयी थी वो।

……  फिर वो सफर भर बेहिस सी रही।

~ सूफी बेनाम

इब्तिदा - begining ; इन्तेहाँ - end ;  गुज़िश्ता - past ; गैर- मुत्ताबद्दल - unchanged ; आइन्दा- future



1 comment:

  1. atee umda sufee jenab.. havaon mein fir mahak see aaye hai aapke alfaz kee..betaklufee khatam kee hai intezaar kee..inshallah..

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