थी काली गुफा
अँधेरा काला-घना
थी दिशा न कोई
पत्थरों से टकराता था
दर्द एहसास दिलाता था
कि निशब्द-सूनापन है
अकेलापन था और
आस थी कब बाहर निकलूँ।
तभी कहीं से सांस किसी की
आ मिली, मेरे साथ चली
तभी किसी ने एहसास पाकर
करीब आकर हाथ थामा चूम लिया।
पता नहीं था कौन है वह
दिशाहीन इस कन्दरा में
किसी का साथ होना ही बहुत था।
हाथ थामे हम सँभालते रहे चलते रहे।
अचानक गुफा का मुंह मिला
हाथ छोड़े दौड़ पड़े आज़ादी को
रौशनी ने आँखों को सिहर दिया था
एक दूसरे की पहचान का एहसास नया था
हमने पहचाना कि हमसफ़र हमसा नहीं है
यह सच-उजाला दिल को बिलकुल रास न आया
किस सत्य पर हम बदन हम, हम सफ़र हम
छोड़ दे साथ एक- दूसरे का ?
क्या रौशनी की सत्य की ज्ञान की
सही और गलत की यही पहचान है?
यही अनुप्रयोग है ?
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