Tuesday, May 14, 2013

अलविदा

मौसमी ये फूल कब तक
डाली से लिपटकर
रोज़  मुस्करायेंगे ?
कबतक खुलकर खिलेंगे ?
सूखी इस नाभि रज्जु से
अब जीवन रस नहीं आता।

बेबस सारी पंखुरियाँ
जीवन मधु-तृष्णा से मतवाली
रूठकर ऊँची उस डाली से
उम्मीद में नीचे को आ गिरती हैं।
कि धरती जो इस मधुरस की,
इस अमृत-धार का सागर है,
सिमट के उसके अंचल में
जीवन की कुछ तो आशा हो ?

पर इस हरारत, इस तपिश,
इस जलन के मौसम में
कुछ देर तो सिन्दूरी रंग संभाले
पर मुस्कीर आंच के मस्लाख में
थोड़ी ही देर  में सूखे पत्तों,
नम घास और गर्द के रंग में खो जाती हैं।

सुना  है आज टहनी  पर
किसी सूनी सुबह के आलिंगन से
मुझसा एक गुच्छा सुन्दुरी
इस काइनात की सूनी हसरत पर
कुछ पल गुलिस्तां सजाने को
फिर खिल  है...........

~ सूफी बेनाम

मुस्कीर - intoxicated ; मस्लाख - slaughter - house ; नाभि रज्जु  - umbilical cord.








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