Wednesday, May 29, 2013

सांसें

जाने क्यों
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

भटकती हैं इधर-उधर
इस फिज़ा में जूझा करती हैं
कभी हवा बनकर परेशां बहती हैं।
मै बेसब्र, इन के बहाव में
कई बार आराम महसूस किया।

कल तो ये कुछ बादलों को
खिसकाकर, पलटकर ले आयी
और कुछ बूँदें छींट कर,एक पहचानी सी
नज़्म से मुझे भिगो कर गयी थीं।
आज इन वादियों-पहाड़ों के
बीच की दूरियों को ढक कर
इन बेसब्र सांसों ने, मेरे चरों तरफ
धुंध का एक चोला लपेट दिया है
और खुद को करीब महसूस किया है।

फिर भी
रोज़ ढूँढा करती हैं,
बिछड़ी हुई सांसें,
उस शारीर को जिसमे वो
हर पल बसा करती थीं।

~ सूफी बेनाम




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