बेशौक तो नहीं पले
ये कातिल मेरी बाहों में
सीने के, आस्तीनों के,
बेअंजाम तो नहीं ये कारवां ?
कौन समझा है
कि कातिलों के इस बाज़ार को
करार नहीं
ए दिलबर ?
कौन कहता है
की खंजर, चाबुक, बिंदिया, मेहन्दी
के जुल्म, अदाये-शौक
मेरे जिस्म पे चल कर पूरे हुए ?
एक ज़माने से जुटा कर अपने
कातिलों का साज और सामान
हमने इस मोहोबते-रस्म की
दुआ मांगी थी।
ख्वाइशों के नाज़ -ए -नाखूने बहार
हुए आर-पार, कई बार
रिसते ज़ख्मों से भरने की उम्मीद
इस जिस्म की शहवत हज़ार।
ये नासमझ दिल रुकता नहीं था
दर्द-ए - गूंज की उम्मीद को
ये बेथक, बे-इन्तेहां कातिल
आते ही रहे।
कभी एहसास न कोई
ज़िन्दगी की पहचान बना ?
क्यों बने वो कातिल वो खंजर
बस यादों के निशां ?
आज फिर हम बेसब्र हैं
एक तीखी चुभन को
जो रूहानी अब्र को जझकोर कर
मेरे जिस्म को तोड़ दे ?
तुम ये बाज़ार सजाये रखना
सुना है नये दौर के
कुछ नये कातिल
पैनेले हथियार ले कर आयेंगे।
ये मोल भाव का रिवाज़
चलता ही रहे।
~ सूफी बेनाम
ये कातिल मेरी बाहों में
सीने के, आस्तीनों के,
बेअंजाम तो नहीं ये कारवां ?
कौन समझा है
कि कातिलों के इस बाज़ार को
करार नहीं
ए दिलबर ?
कौन कहता है
की खंजर, चाबुक, बिंदिया, मेहन्दी
के जुल्म, अदाये-शौक
मेरे जिस्म पे चल कर पूरे हुए ?
एक ज़माने से जुटा कर अपने
कातिलों का साज और सामान
हमने इस मोहोबते-रस्म की
दुआ मांगी थी।
ख्वाइशों के नाज़ -ए -नाखूने बहार
हुए आर-पार, कई बार
रिसते ज़ख्मों से भरने की उम्मीद
इस जिस्म की शहवत हज़ार।
ये नासमझ दिल रुकता नहीं था
दर्द-ए - गूंज की उम्मीद को
ये बेथक, बे-इन्तेहां कातिल
आते ही रहे।
कभी एहसास न कोई
ज़िन्दगी की पहचान बना ?
क्यों बने वो कातिल वो खंजर
बस यादों के निशां ?
आज फिर हम बेसब्र हैं
एक तीखी चुभन को
जो रूहानी अब्र को जझकोर कर
मेरे जिस्म को तोड़ दे ?
तुम ये बाज़ार सजाये रखना
सुना है नये दौर के
कुछ नये कातिल
पैनेले हथियार ले कर आयेंगे।
ये मोल भाव का रिवाज़
चलता ही रहे।
~ सूफी बेनाम
Is bazar ki umar har armaan, har naummidi se jyada hai...
ReplyDeleteNa jane kitni baar bikne aaye yaha, na jane kitni baar khali hath laute...
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