Sunday, October 13, 2013

ये कातिल मेरी बाहों में .......

बेशौक तो नहीं पले
ये कातिल मेरी बाहों में
सीने के, आस्तीनों के,
बेअंजाम तो नहीं ये कारवां ?

कौन समझा  है
कि कातिलों के इस बाज़ार को
करार नहीं
ए दिलबर ?

कौन  कहता है
की खंजर, चाबुक, बिंदिया, मेहन्दी
के जुल्म, अदाये-शौक
मेरे जिस्म पे चल कर पूरे हुए ?

एक ज़माने से जुटा कर अपने
कातिलों का साज और सामान
हमने इस मोहोबते-रस्म की
दुआ मांगी थी।

ख्वाइशों के नाज़ -ए -नाखूने बहार
हुए आर-पार, कई बार
रिसते ज़ख्मों से भरने की उम्मीद
इस जिस्म की शहवत हज़ार।

ये नासमझ दिल रुकता नहीं था
दर्द-ए - गूंज की उम्मीद को
ये बेथक, बे-इन्तेहां  कातिल
आते ही रहे।

कभी एहसास न कोई
ज़िन्दगी की पहचान बना ?
क्यों बने  वो कातिल वो खंजर
बस यादों के निशां ?

आज फिर हम बेसब्र हैं
एक तीखी चुभन को
जो रूहानी अब्र को जझकोर कर
मेरे जिस्म को तोड़ दे ?

तुम ये बाज़ार सजाये रखना
सुना है नये दौर के
कुछ नये कातिल
पैनेले हथियार ले कर आयेंगे।

ये मोल भाव का रिवाज़
चलता ही रहे।

~ सूफी बेनाम



2 comments:

  1. Is bazar ki umar har armaan, har naummidi se jyada hai...
    Na jane kitni baar bikne aaye yaha, na jane kitni baar khali hath laute...

    ReplyDelete
    Replies
    1. This comment has been removed by a blog administrator.

      Delete

Please leave comments after you read my work. It helps.