Monday, October 7, 2013

नज़्म

मैंने अपने दो कच्चे मिसरों को
तुम्हारी नज़्म के साथ
डायरी के पन्नों में लपेटकर
साथ सुला दिया है।

बुक - मार्क भी नहीं लगाया है।

सिमटे सहमे वो कच्चे मिसरे
तुम्हारे अंदाज़ खोज ही लेंगे
एक डिक्शनरी भी साथ रख दी है
गर बात आगे बड़ी तो खुद बा खुद समझ लेंगे

उम्मीद है रात महफ़िल
तो सजी ही होगी
और हमारे सवालों को
एक नज़्म ने छुपाया होगा।

~ सूफी बेनाम


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