Friday, October 25, 2013

सहर



मूंह-अँधेरे मैंने एक
चिराग जलाया था
कुछ देर ख्याल करने को
कि दिन गुज़रकर क्या करेगा।

जब सुबह को अफरोज़ करने
रश्मियाँ आगे बढीं,
तो, घरों में कमरों में,
अँधेरा बढ़ता रहा।
फिर एक पूरा दिन
लग गया है इसको खींच कर
अपने कमरे को शाम तक
सजाने में, चमकाने में।

उम्मीद रहती है कि
समझ तो पाऊँ कि
किस आज़ादी की चाहत को,
या मेरे घर-आंगन की खबर-खुशबू देने
खुदा को, हर रोज़, ये उजाले,
असमान में बिखरकर
सुबह कर देते हैं।

~ सूफी बेनाम


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