न डगर रही
न ही रही अब घर की तलाश,
न जिये
कभी, न ही किसी पे
मर के जले,
न मुड़
सके, न ही किसी मंजिल
को फले,
न रुके
कभी, न ही किसी सफ़र
पे चले,
न खुद से
जिये, न किसी पलकों
पे पले,
क्यों
बेचैन हैं इस ज़िन्दगी के चोले
में ?
बेकरारी
का कोई तो मुक़ाम होगा?
ज़िन्दगी
की अनगिनित साँसों में ..
कहीं तो
मेरा हिस्सा बयां होगा ?
बेखबर खुद
से हैं हर गली- हिंडोले
में ?
कहाँ खोये
है कोई तो जगा लो हमको ..
कहूं कैसे
खुद से कि कुछ तो कर-गुजरें?
ए ख़ू-ए-यार
थोडा तो तरस खाओ।
~ सूफीबेनाम
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