Wednesday, April 24, 2013

क़र्ज़



रात और दिन के फ़ासले का सफ़र
आज फिर तय किया हमने
बटा रहा सुरूर टिमटिमाते खटोलो में
और हमारे प्याले कतारों में रहे..
दूर राह  पर नज़र बिछाए
किसी एहसास के इंतज़ार में.

रात में नीद न आने की
तकलीफ बड़ी है
खुली आँखों  की करवट पर
खाली पाँव ख्वाब दौड़ते हैं
बहुत लकीरों से दलीलें की हमने
पर चेतना को सहजता का ये सबब नया है.

रौशनी की बिखरी हुई लपटों को
दिन के कोहराम से बुझा कर
अँधेरा मेरे पास लाता है और
जागते हुए उजालों से छुपा कर
खुली हुई पलकों की दरारों में
चुभे कर्जों का खाता फिर खुल जाता है.

चद्दर पे अंगुलियाँ फेरीं
वहां ख्वाबों के नीशान बने थे
पलकों को दबाने की कोशिश की तो
किसी दर्द से सहसा काँप गयीं
शायद हर  मंजिल पर
इन एकतरफा-ख़्वाबों के हिस्से बटे नहीं होते .

कैसे नींद होगी वो
जो कह दे येह सब ख्वाब था
और कौन से सवेरे
किस करवट के सहारे
कोई ख्वाब मीरा के विष का प्याला
मुझे फिर चुनौती देगा?

~ सूफी बेनाम


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