रात में, काले बादलों पे,
तारों की चादर
या होती है, या नहीं होती।
या तो चाँद के चरों ऒर,
शरमाये टिमटिमाते तारे,
दिखते हैं या फिर
किसी बदल या धुए की परत से
ढक जाते हैं।
अब यूं ही चाहूं कि बस
एक तारा टिमटिमाये
तो ऐसा नहीं हो पाया
कभी भी इस आज़ाद
खुले आसमान में
चाहत का बस एक ही तारा न खिला
हाँ रात की बदली में यह कोहरे से
कभी ऐसा हो पाया।
रात तो खुशनुमा थी
और खुशगवार भी
मैंने कई बार चाहा
इस साफ़ आसमानी रात को
चादर में मुह ढक के
सो जाऊं
पर क्या करूं
इस टूटे हुए जिस्म को ?
बदलती करवट पर कम्बल
सरक ही जाता है।
या कभी कम्बल बंधी सांसों में
उलझ कर
पहले आँखों से ढलकता है
और यूं ही
हर बार की तरह यह टिमटिमाता गगन
फिर मेरी नज़रों पे खिल उठता है।
~ सूफी बेनाम
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