उस सर्द – सुनसान रात की
अविज्ञ नीरस-सूनी तन्हाई में,
जिसको मेरी अयोग्य आँखों ने
अपनी साधुता
से – आग समझा
वह तो अँधेरे
से साए से ढके
एक निष्ठुर
अधीर दरिया में
दूर निरुत्साहिक
रोशनी की
चंचल-मोहक प्रतिबिम्ब थी।
सत्य-सचेत हो कर भी
मै अपनी बेबसी
में
उस ओर देखता
रहा,
और आँखों में
झलकी गर्मी से
ठंडी हवा के
भेदन को सराहा।
आज न जाने
क्यों
इस बात की
कचोट है कि
मेरे पहचानने
की शक्ति
मेरे समझने
का बूता
सपनों से रंगा
हुआ है।
एक जगत है जिसमे
मै ज़िन्दा हूँ और
एक परोक्ष
वजह है जो
सांसों में
आस बनाये रखती है।
~ सूफीबेनाम
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