Wednesday, April 24, 2013

मुक़ाम

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए .
वीरानों में झुलस कर
ख्वाबों  को हम रोज़ सजदा करते हैं .

इस धुँएं में महफूज़ हैं
हर वो शाम थे जिस पर गम सजे .
महक इबादत में उठती है
लपटों से लिपटकर खिला करती है.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए .....

बेख़ौफ़ बढता चल रहा था
शोलों पर यह कारवां.
बेफिक्र सहर पर बिछी है
राख इसकी ऐ बेखबर.

एक अनकही टीस है
उससे सुलगकर लिपटकर
बेनाम नाबालिग-मोहब्बत
हर शाम यहाँ एक क़र्ज़ अदा करती है.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
महक हर उस नक्श की
जो गुलिस्तान की ख़िलाफ़त में थे खड़े,
घडी गुज़र जाने के बाद.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए ....

~ सूफी बेनाम


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