वोह दर्द ही क्या जो स्याही मे बहे
जो बेलकीर किताबों पर अंगुलिओं से कलेमा कहे
जो शब्दों के जाल बुन कर अँगारों सा सुल्गे
जो रिसती हुई दलीलों को वजाहत से सहे
जो तसव्वुफ़ -इ-आतिश को आस समझे
दर्द वो है जो सीने में चुभो के रखते है
जो की एक बेपर्वाह नशीली आरज़ू के किनारे
इक खामोश सौदा करते हैं
और धीरे-धीरे रिसता है .
~ सूफी बेनाम
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