Monday, July 1, 2013

स्याही से बहा फिर एक ख्व़ाब

कोई ख्वाब स्याही से बहता रहा
और यादों में दायरे फिर घुल गये?

रुके तुम भी थोडा पर ठहरे नहीं
ख्याल में भी बेक़रार लहरों से थे?

ये हरारत नये मोड़ लाती रही
रात करवटों पे सहरा बदलते रहे

नींद आती नहीं अब सवालों को है
मुफलिसी क्यों आज चिरागों में है ?

किस नए ख्याल को अब ढूंदा करें
ज़िन्दगी हर फिज़ा को दोहराती जो है।

हो मुनासिब, ज़मी पे चल के तो दिखा
इस काफिले के गुनेहगार हुम-दोनो ही हैं।

~ सूफी बेनाम


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