Thursday, December 7, 2017

अनायास

लाइफ इस ब्यूटीफुल .......
ब्यूटी हमेशा ना-समझ होती है,
जैसे ज़िन्दगी,
जैसे वो और जैसे मेरे मन में
बसी तुम।
समझ और समझदारी ही घातक है
ज़िन्दगी में
जैसे वो, उसका प्यार और
तुम्हारा गम।
काश जीव-प्रक्रियाओं को
अनायास रहने देते
जैसे समय की ढ़लान पर चलती
साइकिल
जैसे साइकिल के हैंडल पे संकुचित
सी बैठी तुम
..... आसक्ति-जात-तत्क्षण से ग्रस्त मैं
और मेरा मन
.......
अपने पुरानेपन को दोहराता हूँ
बार-बार
जैसे सूर्योदय , जैसे काल-चक्र और
जैसे मौसम।
~ आनन्द


आसक्ति - fascination; तत्क्षण - spontaneous

Friday, November 17, 2017

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो
इस अनन्त दुनिया में मेरी, अपनी इक पहचान दिला दो

जाने कब से चलता आया, लाखों साल हज़ारों काया
पथिक रहा, पर अब है बसना, पता मुझे मेरा बतला दो

अपनी खल-बल में खोया हूँ, भूल चूका मैं बीता सबकुछ
गुज़री बातें छवियों में अब, मनको अंगीकार करा दो

कंवल पंखुरी ओंठो से छू , तृष्णा का अनुमान कराकर
अपने दिन की परछाई की, मुझको तारीखें दिलवा दो

बिम्बों से खुद को जाना है, बिम्बों को अपना माना है
गर आईना टूट गया तो, छवियों को तुम भी बिखरा दो

मिल-लूं-जुड-लूं कैसे फिर मैं, सौ टूटन से बासी हूँ मैं
बीत गयी जो बात गयी है, दिल को ये मेरे समझा दो

पुनर्जन्म के लेन-देन में, बस कर्मों की प्रतिक्रिया हूँ ?
मर कर जीने के उद्देश्यों का अब तो मुझको लेखा दो

सोते ही मैं बुझ जाता हूँ, आकुल मन से जग जाता हूँ ,
समय-काल संघर्षित मैं हूँ , संधिपत्र अबतो लिखवा दो

भोग-विलासी दुनिया है सब, क्या वैरागी बन जाऊँ अब,
कुछ होने से क्या होता है, "ना" होने की, उन्मत्तता दो

गलियों से मंदिर का रस्ता, अड़ते-फंसते, जोगी पहुंचा
कहाँ-कहाँ रहते हो प्रभुवर, कीचड़-दल में फूल खिला दो

कभी मैं शोना कभी मैं बाबू, कभी मैं प्रेमातंकित साधू
कभी प्रणय का काला जादू , कौन हूँ मैं उसको बतला दो

मोड़ पे जब वो मिलने आया, तब मैं उस से मुड़ आया था
मृग-तृष्णा का मोड़ जो मैं हूँ , उसके पार , मुझे पहुंचा दो

पाखण्डी कुछ मैं हूँ, जग कुछ, छूछा खाली बर्तन सब कुछ
मिलूं-जुलूँ अब किससे, किसको दोस्त कहूँ, इतना, बतला दो

तत्वों का अणु-बंधन काया, वो जिसको मैं, मैं कह आया
सच है बस मृग तृष्णा माया, अहम हो तुम इतना दिखला दो

बिम्बित ही बस दिख पाता है, सच बसता दर्पण के पीछे
प्रतिमित को कैसे अपनाऊँ, तोड़ के छवियों को बिखरा दो

रिश्ते जब मैं बो देता हूँ, सबकुछ अपना खो देता हूँ
खो कर कब कुछ मिल जायेगा , थोड़ी तो ढाढ़स बंधवा दो

जीने को मैं जी जाऊँगा, मर कर एक दिन मिट जाऊँगा
सच वो जिसको पाने आया, हस्ताक्षर उसका करवा दो

लौ जो सबको जीवन देती, हर कण को जो रौशन करती
चेतन मन में इस शरीर में, उस लौ से संज्ञान करा दो

नव जीवन पाता हूँ खुद में, अंदर तक जब घुट जाता हूँ
जीव-पुष्प की न्याय-विधा की यात्रा का, कोई नक्शा दो

कोंपल में मुर्झाती दुनिया, पल्लव में फिर खिल आती है
महा चक्र है दुनिया में तम अभ्यन्तर है, दीप जला दो

पत्थर से अब बतियाता हूँ, तरु पत्र में छुप जाता हूँ
तुमसा ही मायावी कवि हूँ, प्रभुवर अब तो अनुचरता दो

सुनो जगत की भीड़ भाड़ में , थामना कब है यह बतलाकर
इन अनजान व्यवस्थाओं में, मेरा मुझो ठौर दिला दो

खो कर ही कुछ मिल पायेगा, पाकर सब कुछ लुट जायेगा
कहो कहाँ है जाना पाकर, इसका भी विस्तार बता दो

कई अचेतन मन की परतों , के अंदर में बसा सनातन
अभिज्ञान स्वय का हो जाये मन में ऐसी ज्योत जला दो



नैनन में काजर की लर है ,

नैनन में काजर की लर है ,
झलक अश्रु अनन्ता की,
लट में उलझी खींचती है ,
गुंजलक बुनदे कर्णों की,
पायल थिरकन को बेरी है,
फलक घुँघरू श्यामा की
मेहंदी गजरा में महकी है,
मसलक मेरे कान्हा की
बाहर देखो साँझ लगी है
लखत बाती गोपाला की
सखी मोहे को खोजत है
पलक व्याकुल मोहना की






















बेरी - बेड़ी (metal chains), गुंजलक- crease, complication, मसलक - path, ideology, लखत - bit/portion, पलक - eye-lid.

डायरी

अपने खालिपन को एक
डायरी के मानिन्द,
काग़ज़ बना के भेजेंगे,
ज़रा कुछ लिख दिया करना।
सादेपन पे बहादेना
नशा-ओ-खुमार अपना,
जो न कह पाओ किसी से,
हमीसे लिख दिया करना।

कभी इसको लुका देना
अपनी श्रिंगारदानी में,
कभी बटुए मे अपने
इसको घर दिया करना।
सधाना पननों को फँसाकर
काटियां अपनी,
रात सिरहाने से दबाकर
सुला दिया करना।

बहुत कुछ पूछना चाहेगा
तुमसे ये आवारापन,
तुमभी कलम बन कर रवां-में
बह लिया करना।


~ सूफ़ी बेनाम




कहते कहते रुक जाते हैं

कहते कहते रुक जाते हैं

रुकते रुकते थक जाते हैं
आधी सांसें आधा जीवन
जैसे तुम बिन बिक जाते हैं

कह दो हम से सच हो ना तुम
सब कब हम से निभ पाते हैं
डूबे हैं सरिता मदिरा में
साहिल अब दुर्लभ पाते हैं

भारी सच पे सपना रहता
तस्वीरों को जब पाते हैं
बोध को जबसे खोना सीखा
रमना मुमकिन तब पाते हैं

भीगे लब पर चाय की चुस्की
जो तुमसे मिल कर पाते हैं
हंसते हंसते चढ़ती सांसें
आराइश खो कर पाते हैं

सांसों की मृगतृष्णा देखो
मर के हरिहर को पाते हैं
कितना हल्का हल्का लगता
भीतर तक जब तर जाते हैं

कहते कहते रुक जाते हैं
रुकते रुकते थक जाते हैं







अगर रखती इरादों में हो गहराई, बता देना

मैं तैरा हूँ समुन्दर भी , न तुम मुझको डुबा देना
अगर रखती इरादों में हो गहराई, बता देना

तिरे लब का सितमखाना, है खुशबू की करीबी पे
पय-ए-इक्सीर सी हसरत, रिवायत ये निभा देना

तिरे ज़ुल्फ़ों का दीवाना, हूँ काजल से बहुत ज़ख़्मी
हो बहकाना ज़रूरी तो मुझे कुछ तो, पिला देना

यूं मज़हब सा निभाऊंगा, मैं रिश्तों की खुमारी को
मैं बुतखाना बना दूंगा, ज़रा तुम मुस्कुरा देना

रहा उलझा हुआ अकसर, मैं हसरत की निदामत से
ज़मी सर सब्ज़ है ख्वाबोँ की, दो ख्वाइश दबा देना

~ सूफ़ी बेनाम





आओ ले जाओ मुझसे मैं

जब भी तुमसे मिल के आता हूँ
तो कविता में एक नयापन
यूं आ जाता है कि,
बहकर तुममें जब
मैं पूरा हो जाता हूँ
खाली-खाली तब
जगकर मुझमें, भीतर,
उसको भरने
एक अज्ञात-घटक
उभर आता है
उसको ही मैं लिख देता हूँ,
जी लेता हूँ,
समझो कविता कह लेता हूँ।

पिछले कुछ सालों में कविता में
बस मैं ही मैं हूँ।
अनजानापन ढूंढ रहा हूँ
आओ ले जाओ मुझसे मैं
मेरी कविता हलकी कर दो
मुझको मैं से खाली कर दो।


~ सूफ़ी बेनाम











Thursday, October 12, 2017

पूरी दोपहर

क्या फ़ायदा है कविता लिखने का
और पढ़ने का,
जीवन में अगर
मेरे पास वक़्त इतना न हो
कि तुम्हारी लिखी कविता को
धीमे-धीमे पढ़ सकूं।
हर हर्फ़ को कमसेकम
दो बार पढूं,
उनकी कड़ियाँ समझूँ ,
उनको ओंठो पे उतरूं
कानों पे दोहराऊं
अनुमान लगा सकूं
उन ठण्डी आहों काजो हर मिसरे पे बही होंगी
और फिर
पूरी दोपहर गुज़ारूं
अल्फ़ाज़ों की झिझक को
तोड़ कर उनके पीछे छुप रहे
आभासों में उतरकर,
गहरी नींद तुम्हारे साथ ही आती है।


~ आनन्द


Wednesday, September 27, 2017

उमर में हम ही क्यों तिगड़म हुए हैं

1222-1222-122

महक-बुस्तान से पुरनम हुए हैं
हमारे शौक पूरे कम हुए हैं

हमारे दोस्त सब गैंती-दराती
मगर कुछ इश्क़ में मरहम हुए हैं

नशीली नींद में झोंके हवा से
कई वो चाँद जो पूनम हुए हैं

जवां-उम्मीद, हसरत-नरगिसी सब
शिकस्ते उम्र के हमदम हुए हैं

बिना पानी के कुछ तैराक़ हैं जो
यहाँ पर बेफ़िकर आलम हुए हैं

हसीं गोता-बरी हैं ज़िन्दगी में
वही हर रेस में मध्धम हुए हैं

तज़ुर्बे है अगर बहतर बनाते
उमर में हम ही क्यों तिगड़म हुए हैं

ढकें ख़ुश-रू औ चहरे की निगाहें
ज़मीं पे आप के बस ख़म हुए हैं

उसे महसूस होगा प्यार मेरा
किसी आग़ाज़ के मौसम हुए हैं

~ सूफ़ी बेनाम



ख़ुश-रू- charming face ; बुस्तां - scented garden ; पुरनम - filled with tears ; 
गैंती - digging tool ; दराती - saw with teeth; ख़म - locks of hair ; 
गोता-बरी - free to dive/capable of deep diving ; मध्धम - slow.

Thursday, September 21, 2017

पूज दो पत्थर खुदा हो जाएगा

२१२२-२१२२-२१२

हम को तो उस दिन नशा हो जाएगा
मन दुपट्टा आपका हो जाएगा

मन हमारा आप से भर पाए तो
इश्क़ हमको दूसरा हो जाएगा

गंदलापन है हमारी चाह में
तू भी इक दिन सरफिरा हो जाएगा

इश्क़ भी इंसान का अनुमान है
चाहतों में फैसला हो जाएगा

क्यों भटकना रोज़ कू-ए-यार में
दर्द भी जब फ़ायदा हो जाएगा

हैं हज़ारों रूप उसके बरहमन
पूज दो पत्थर खुदा हो जाएगा

चाहत -ए -मन छटपटाना रोज़ का
उम्र ढल कर कायदा हो जाएगा

हाथ थामे चल रही हो नाज़नी
सोच लो अब सिलसिला हो जाएगा

गर झुकी पलकें जो तेरी प्यार में
दिल मेरा फिर से खुदा हो जाएगा

और सजदे में रहेगा आदमी
इश्क़ का जब तज़रबा हो जाएगा


~ सूफ़ी बेनाम

Monday, September 18, 2017

अब तो हैं दिल को आ गईं आँखें

२१२२-१२१२-२२

रौशन-ए-दिल दिखा गईं आँखें
मिलते ही शर्म खा गईं आँखें

कुछ झिझक सी गयी थी पल भर को
ताकने सौ दफ़ा गईं आँखें

इश्क तो दूरियों पे ज़िन्दा है
फासले सच, मिटा गईं आँखें

कैस का दिल्लगी में कोरापन
तज़रबा कुछ करा गईं आँखें

वस्ल तो जिस्म की ज़रूरत है
बाकी सब तो निभा गईं आँखें

उनको हसरत से हमने देखा तो
खामखां कसमसा गईं आँखें

हाय उनकी नज़र का बुतखाना
यार दिल को थी खा गईं आँखें

इश्क़, हसरत, खुमार, अंधापन
राज़-ए-दिल को बता गईं आँखें

प्यास दो चुस्कियों में डूबीं जब
धड़कने को बड़ा गईं आँखें

दोस्त रूमाल बन के आ जाओ
अब तो हैं दिल को आ गईं आँखें

पास सीढ़ी के सांप दो-दो हैं
दाँव पांसे लगा गईं आँखें

ख़ुशनुमा काजल-ए-सफर में हम
जब से है फ़न दिखा गईं आँखें

जेब खली है दिल भी सूना है
शौक में सब बहा गईं आँखें

बेज़ुबानी सराब चहरों की
काल दिल को लगा गईं आँखें

~ सूफ़ी बेनाम

Saturday, September 16, 2017

वफ़ा-ए-ज़िन्दगी

ग़ज़ल - वफ़ा-ए-ज़िन्दगी
१२२२ - १२२२ - १२२२ - १२२२

वफ़ा-ए-ज़िन्दगी मुझसे समझना और समझाना
खबर ले कर हमी से फिर से हमको और उलझाना

लगा रखती हो बातों में हमें तुम, जैसे बच्चा हूँ
फ़क़त इस बचपने में, मुस्कराकर और सुलगना

बला हो तुम भी कैसी, काजलों संग ख़ुशनुमा गजरे
हमारे शौकत-ए-माज़ी का, ओंठो पे यूं गदराना

नशेमन, मेरे कांधे सर टिका कर के, सजाना फिर
गुनाह-ए-हाल पर फिर से मोहब्बत में चले आना

सरल कर देना मुझको, मेरी उलझन में गले लगकर
गुदाज़-ए-इश्क़ की बाँहों में फिर सपने से फुसलाना

बहुत हैं दांव लगते, वस्ल, पेंच-ओ-ख़म तुम्हारा है
मशक़्क़त था तुम्हारे साथ में उस रात सो जाना

हूँ पच्चिस साल से ज़िन्दा, महज़ उस एक लम्हे में
दहर से दूर हैं रिश्ते हमारे, ग़श नही खाना

~ सूफ़ी बेनाम




Thursday, September 14, 2017

हूँ सूखा हुआ सा, मैं बंजर सा बदल

122 122 122 122

सितमगर के दिल से, वो फ़न ले के लौटा
रूदाद-ए-दिलों की, चुभन ले के लौटा

वहां तंग गलियों, बसे लोग सौ-सौ
अजीबो-गरीबां, कथन ले के लौटा

अथक है पिपासा, बहे मन की सरिता
महकती ग़ज़ल में, छुअन ले के लौटा

महकते-बहकते मिलो, होश में अब
मैं मीलों सफर की, थकन ले के लौटा

समुन्दर किनारे बसा इक शहर है
नया उस शहर से चलन ले के लौटा

हूँ सूखा हुआ सा, मैं बंजर सा बदल
मगर सूफ़ियाना अगन ले के लौटा

~ सूफ़ी बेनाम






Friday, September 8, 2017

वो सपना जिस की हलकों मे बहुत आराम आता है

वो सपना, जिस की हलकों मे, बहुत आराम आता है
छलक कर ओंठ से, नगमों का बन, पैगाम आता है

हमें लगता नहीं था, दिल कभी पंचर भी होगा पर
मगर आफसोस की, इस बात का इलजाम आता है

हमारी हर खता भूली, इनायत राज़दारी की
शहर के कुछ शरीफों में, हमारा नाम आता है

शराफत है बड़ी इक चीज़, वाइज़ ने सिखाया था
मगर उम्र-ए-बगावत में, कहाँ सब काम आता है

सुनो अब सोचना कुछ नहीं, बाकी रहा है पर
कलपते चाह को, तुम से सटा, आराम आता है

बहुत छिपते-छिपाते, चल रहा है, सब यहाँ अबतक
नतीजा है, हमारे नाम में, बेनाम आता है
~ सूफ़ी बेनाम

१२२२ - १२२२ - १२२२ - १२२२


 


Friday, August 25, 2017

समय की सूचियाँ

समय की सूचियों में, नाम जुड़ते हैं, नये कब -अब
पुराने लोग हैं, कुछ जो बहलने, लौट आते हैं

मिला करते हैं, हम भी अब, सभी से इश्क़ में घुलकर
उमर-बेताब को, हम कब कहां, संभाल पाते हैं

नतीजे एक से, होते कहाँ हैं, हर महोब्बत के
तज़रबा शक्ल को हम, देख के, पहचान जाते हैं

~ सूफ़ी बेनाम







बहतर है

हजारों झूठ से, बहतर है, ख्वाइश को भुलाना ही
कहो तुम सच की, सपनों से हिफाज़त, क्यों नहीं करते

कहां पर खो गये हैं, खुद नहीं मालूम है हमको
मगर तुमको भुलाने की हिमाकत, क्यों नहीं करते

अदावत रोज़ होती है, महोब्बत रोज़ मरती है
सुनो फिर नफरतों को आम, आदत क्यों नहीं करते

- सूफी बेनाम



तीज २०१७

ज़माने भर की रौनक ले के दिल मे जग चुके सपने
सुनो अब तीज पे उनका कोई पैगाम आ जाये

बहुत खुशबू रही इस प्यार मे औ चाह है हद तक
इसी ताबीज़ से हर दर्द को आराम आ जाये

कभी ऐसा भी मौका हो कि हम तुम पास आ पायें
तुमारे लब बिखेरे दिल्लगी औ शाम आ जाये

~ सूफ़ी बेनाम


 


निशानी कच्चे पन की

समझदारी, निशानी कच्चे पन की है, हमेशा ही
तज़ुर्बेकार, रखते हौसले, नासमझियों के हैं

गुज़रते सालों के मज़मों में, यादें पल रहीं है, पर
बचे सालों से अकसर हम, उमर को आंक पाते हैं

शराफत ने सिखाया है, अभी तक जीना, डर-डर के
मसाफ़त की कशिश से, सच का मज़हब भांप लेते हैं

बहुत नादान हो, जो चाहते थे, ठीक हो सब कुछ
चलो, अब ठीक क्या है, ये तो तुमसे पूछ सकते हैं

वो पागलपन, कभी जिसके लिए तुम पास आती थी
उसी को बेवजह, क्यों आज तक हम, पाल रक्खे हैं

हलफ़नामे, कभी छपते नहीं हैं, इश्क़ में मरकर
न जाने क्यों, इसे मज़हब का, फिर सब नाम देते है

~ सूफ़ी बेनाम




मसाफ़त - journey / distance ; हलफ़नामे - affidavit 

Tuesday, August 22, 2017

तुम्हारी कवितायेँ

आज कल तुम्हारी कवितायेँ
भीतर तक हिलाने लगी हैं
ऐसा लगता है जैसे कोई है
शायद मेरे ही भीतर
जिसके लिए ये शब्द तुम से
उभर कर, लिख जाते हैं
पर
शायद मैं उसको
जानता नहीं
ऐसा लगता है कि जब तुम
ढूंढ लोगी उसको
तब मैं भी उससे मिल सकूँगा।

~ सूफ़ी बेनाम



Friday, July 28, 2017

कभी तुम साथ मेरे घर तो आना

1222/1222/122

कभी तुम साथ मेरे घर तो आना
हमारा घर भी तुमको घर लगेगा

अगर आओगे तुम कमरे में भीतर
तो शायर-मन, तुमे तलघर लगेगा

जहाँ है खाट औ उलझा सा बिस्तर
वहीं पे फिर ग़ज़ल दफ्तर लगेगा

पता कागज़ को रहता है तुमारा
नशा बस स्याही को पीकर लगेगा

सुनो तुम बैठना आराम करवट
अभी किस्सों में ये दिलतर लगेगा

अगरचे हाथ मेरा छू गया हो
तो शायद तुम को थोड़ा डर लगेगा

ये आलम आ ही जाता है इनायत
यूँ मौका ज़िन्दगी कमतर लगेगा

तग़ाफ़ुल शेर पे है शेर कहना
उफनता चाह का तेवर लगेगा

मुक़र्रर औ मुक़र्रर दाद रौनक
रवानी फासला खोकर लगेगा

तसव्वुर में कई जो ख्वाइशें है
ये अबतक उन से तो हटकर लगेगा

अगरचे गुदगुदी तुमने करी तो
चुनाँचे तब यहाँ बिस्तर लगेगा

~ सूफ़ी बेनाम



Wednesday, July 26, 2017

उमर है................


1222-1222-1222-1222

कहीं से भी, हमें आवाज़ अब ,आती नहीं उसकी
हां शायद हम भी, उसको हर जगह, ढूँढा नहीं करते

है किसमत ये, कि रस्ते में हैं टकराते, उसी से हम
उमर है, रोज़ किसमत भी तो, अजमाया नहीं करते

ग़ज़ल के, राबते तो आज भी, इसरार करते हैं
मगर हम, अब नयी उम्मीद को, ज़ाया नहीं करते


~ सूफ़ी बेनाम

Monday, July 24, 2017

खुद न बनना रासता तुम, राह बनके देखना

२१२२-२१२२-२१२२-२१२ 

दिन पिघलते आसमां में , रंग भरके देखना
साथ में हमसाज़ के, हर शाम ढलते देखना

मंज़िलों का शौक रखके, दूर तक चल तो सही
रासते हों तंग, तो संग तेज़ चलके देखना

यार की दिलदारियाँ, दमभर निभाना पर सुनो
खुद न बनना रासता तुम, राह बनके देखना

गर शुआओं पे, हो उसकी, दिल की धड़कन महरबां
तो सुनो, उस आँख का काजल संभलके देखना

जिन के लब हों राज़दानी उनसे ही मिल ते रहो
आरज़ू जिसकी दराती, उनसे कटके देखना

हाय! ये तन्हाईयाँ, रहती सभी बेनाम क्यों
कर उमर को आशना, खुद तू पलटते देखना 

~ सूफ़ी बेनाम


 


Friday, July 21, 2017

हमें अन्दाज़ कुछ तो था, कि हम उल्लू के पट्ठे हैं

नकाम-ए-इश्क़ को, हरेक क्यों, लगता पराया है
हमें जब भी मनाया, आप ने, हंस के मनाया है

जलेंगे ही, अगरचे आग से खेलोगे, ज़िन्दा हम
लपट की चाहतों में, जो भी आया, मर के आया है

बड़ी डिग्री है हासिल, इश्क़ में, जान-ए-तलब तुमको
हमें तो, प्यार की सरकार ने, अनपढ़ बताया है

फकत नाकामियों का इल्म तो, उम्र-ए-तकाज़ा था
इसी के दरमियाँ ही, खुद को भी बच्चा बनाया है

हमें अन्दाज़ कुछ तो था, कि हम उल्लू के पट्ठे हैं
मगर इस सच को, रह-रह आपने, अक्सर जताया है

~ सूफ़ी बेनाम



Saturday, July 15, 2017

सभी को लग रहा बरसात है मौसम जवानी का

वो किलकारी, खुशी की चीखता, हंस्ता हुआ बचपन
पहल थी मौसमों की, उस की गोदी सींचता बचपन

है सृष्टी माँ की ममतायी झलक में, आज भी कायम
कभी है सर्द का मौसम, कभी वो बूंद का बचपन

सभी को लग रहा बरसात है मौसम जवानी का
मगर हर बूंद से खिलवाड़ करता, खेलता बचपन

उमर की बदलियों में सूखने लग जाते हैँ, तन-मन
बहाना कागज़ी इक नाव, बह कर डूबता बचपन

ज़रा मिलने चले आओ, कभी तो मौसम-ए-सावन
कि तुम से भीग कर, संग सूखना है चाहता बचपन

फ़कत मिट्टी में तेरी बीज जो हमने भुलाये हैँ
उनें मकरंद से मोती करो या कोपला बचपन

कि तुम संग भीगने से है लिये ये, जिस्म सौंधापन
लिये कुछ बूंद के चिलमन, हुआ सागर, डुबा बचपन

- सूफी बेनाम



क्या कर लोगे आगे जा कर

नाम अधूरा तेरा है पर
मेरी स्याही लिखती बहकर

कब थकता है रुकता है कब
जो जलता है अपने भीतर

अन्दर जब सोता फूटेगा
पीछे मत हटना घबराकर

सब कुछ फैला-फैला सा है
दिन जब बीत गया है थक कर

गर बादल फूट के बरसे तो
मुझमे घर करना चिपकाकर

गर दोस्त पुराना मिल जाये
बाहों को भरना फैलाकर

तुम आते हो मुझसे मिलने
मैं बिखरा हूँ मन के अन्दर

वक्त नहीं है पल्टा पीछे
क्या कर लोगे आगे जा कर

राधा की कनचन काया में
ज़िन्दा मीरा सी वो लुटकर

- सूफी बेनाम



Thursday, July 13, 2017

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

लिखावट एक से, एक नहीं बनती हैं भाषायें
न ही उनको व्यकारण की परिधी बांधती है
शब्दों के समागम और उनसे उमड़ते मयार भी
अपनी कोहराई कालपनाओं में रास्ते ढूंढती हैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम लिखती हो तो ज्ञान का आभास होता है
अज्ञानता की निशानी हैं भाषायें, मेरे लिये पर
तुम अपनी हिन्दी में भी मुस्कराती रहती हो
जगाती हजारों व्यंग वो, मेरे भीतर ही भीतर

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

ख्याल पका लाती है हरेक रचना तुमहारी
हूँ अनभिग्ज्ञ, अनुठापन अक्सर ढूँढता मैं
विदित नहीं हमको कि ये चेतना क्या है
तुम्हारे रीत और काल की समानता क्या है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम जब लिखती हो तो तुम सम्पूर्ण होती
शब्द दिखाते हैं पैबंद मेरे आधूरेपन पर
काव्य में बहते हर रोज़ देखा है तुमको
छन्द में कुछ मात्राओं पे हर पल संभलता मैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भावनाओं के पर ले, पहुँच से दूर जा उडी हैं
स्वयम की परिधी ढूंडती भाषाई-अभिलाषायें
पीछे पलट जब कभी देखता हूँ अपने लिखे को
पहचानत नहीं मैं अपने चहरे, अपनी परिभाषायें

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भाषा-भावनाओं का अनुवाद नहीं मेरे लिये
अर्ध-चेतन होकर मनकी तरंगें बर्गलाती हैं
शुष्क कागज़ पर लिखा निढाल सूक्ष्म मेरा
मेरे बदलाव पर, समझ के आघात बचाता है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

~ सूफी बेनाम



आओ ज़रा ज़रा सा तो हम तुम मिला करें

वज़्न--221 2121 1221 212
गिरह :
आओ ज़रा ज़रा सा तो हम तुम मिला करें
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पडे
मतला :
सब लूटने लगे थे कि दानी निकल पडे
मजबूरियों के साथ जवानी निकल पडे

थोड़ा कुरेद लो जो भी नम सा मिला करे
शायद किसी बूढे से जवानी निकल पडे

तुम बेमिसाल नाज़ हो, बेहद हसीन हो
सब से मिला करो कि रवानी निकल पडे

वो कैद कर के ले गयी दो पल हयात से
शायद वही थे जी गये फानी निकल पडे

वो तेज़ तो बहुत है, मगर है शरीफ वो
ये सोचते ही आँख से पानी निकल पडे

हम आप के करीब भी आये थे इस लिये
कि शेर दो हों साथ तो, जानी, निकल पडे

इक शेर तुम कहो तो, कभी शेर हम कहे
इन दूरियों में रात सुहानी निकल पडे

न मुमकिनी की बात न, मुमकिन किया करें
बेनाम की सफा कि कहानी निकल पडे

- सूफी बेनाम

Wednesday, July 5, 2017

बन काव्य खिल जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब मन-कानन में कूजन है, नव रस है
मन संवाद की झलकी भरो
बन काव्य खिल जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब डालों पे, नव पल्लव की चादर है
निगाहों में लिये कोहराम
वसंत श्रृंगार को आवो

प्रस्तावित ही सही पर
अब निद्रा को बोध मंद स्पर्शों का है
चलो शीत की ओढ़न बनो
रतिज स्वप्न-प्रबोध हो जावो

प्रस्तावित ही सही पर
अब अज्ञ-ज्वार से धुलकर मन-भू उर्वर है
जगो तृष्णा, जलो मुझमें
लावण्य प्रतिकार बन आवो


~ सूफ़ी बेनाम

वजह इस दरमियाँ जो इश्क़ है, आदाब मेरा है

महकती है जो तनहाई करार -ए -दिल की बाहों में
लिये चहरा किसी का हो, मगर असबाब मेरा है।

हज़ारों तन बदन मिलते हैं, लाखों बार बिछड़े भी
वजह इस दरमियाँ जो इश्क़ है, आदाब मेरा है।

बना करते हैं जब रिश्ते, गज़ब लाते हैं गहराई
मगर तुम सांस लेती हो जहाँ, पायाब मेरा है।

तुम्हारी शोखियाँ हर बार जो, बारिश में भीगी थीं
सुनो हर बूँद की, उस कैफ़ियत में, ताब मेरा है।

फक़त रानाइयो में संग तेरे जो भी था, वो हो
नसों में जो नशा बसता है, वो शादाब मेरा है।

बहुत अहमक़, अनाड़ी है, जो नामो-दम पे जीता है
हमेशा शाद है, बेनाम वो, बेताब मेरा है।

मतला :
फ़ना तक सूफ़ियत जो जी गया, अलक़ाब मेरा है
हज़ारों रात की आवारगी, महताब, मेरा है

अलक़ाब - title, असबाब - cause/ reason , आदाब - salutation/etiquette, पायाब - shallow, ताब - heat/power/lusture, शादाब - youth, शाद - cheerful













Monday, July 3, 2017

जाने बेनाम वो किस किस को बनाने आए

वज़्न--2122 1122 1122 22
काफ़िया—आने, रदीफ़ ---आए

जाने बेनाम वो किस किस को बनाने आए
जब भी आए वो भटकने के बहाने आए

नाम औ शक्ल की पहचान को मिटा कर अकसर
हमसे हर किस्म के रिश्ते वो निभाने आए

हमने हर ज़ख्म को ग़ज़लों को दिखा रक्खा है
मुस्कराहट से अदावत वो बढ़ाने आए

वो नहीं और सही, और से बहतर कोई
इस दिलासे के बहाने वो पटाने आए

मेरे हर रोम में उस याद की रिम झिम बारिश
खुद थे भीगे वो, जबर हमको भिगाने आए

सूफ़ियत और ये मजनून सी हालत उनकी
कौन समझाए ये मुश्ताक़ ज़माने आए

~ सूफ़ी बेनाम





जो रस्ता जंगल से आता

उस रस्ते तू मिलता क्यों है

जो रस्ता जंगल से आता
घोर अंधेरे से ढ़क जाता
निज रच आलम में खोया तू
दिन रातों में मग्न अकेला

तू मुझको मिल जाता क्यों है

क्रमशाः







वेसाक पूर्णिमा

वेसाक पूर्णिमा

ज़रा छत पे आओ
मैं कुछ देर
चाँद की गोलाइयों को
उतारकर
तुम्हारे जिस्म पे रेंगूं
मद से लदा हुआ हूँ
आज चांदनी में
घुला हुआ हूँ।


~ सूफ़ी





कभी जब पढ़ता हूँ किताब को, तो किताब मुझको भी पढ़ती है

साथ सोते हैं असाध रातों तक
मेरे तोशक पर आहें भर्ती है
उससे संभालती नहीं है अंगड़ाई
हमको वो निढाल करती है
सीखना चाहता हूँ दुनिया से
तजुर्बेकार हमको लगती है
जिनको तरसती हैं मेरी आहें
अनुभव खुद में छिपा रखती है
कभी जब पढ़ता हूँ किताब को
तो किताब मुझको भी पढ़ती है।
पकड़ती है सिली-जिल्द से मुझे
फ़िर क्रमांकतार से पलटती है
आँख में कौंधते मात्रा और रेफ
भीतरी गूंज-सार तक बदलती है
बंद करता हूँ जब अधूरा उसको
पृष्ठ स्मृति पर हमेशा मिलती है
मैं नहीं चुनता इक्सीर अपनी
वो मेरी तक़दीर को समझती है
वो सृजन है किसी अपने का
क्यों नतीजे पे वो संभलती है
उतेजनाओं से मैं खण्डित हूँ
वो निश्चिन्त मेरी गिरफ़्त रहती है
नया सा रिश्ता ये मैने समझा
शायद वो भी ये समझती है
कभी जब पढ़ता हूँ किताब को
वो अपनेआप मुझको पढ़ती है


~ आनन्द



ख्याल











































वस्ल की राजनीत है

वस्ल की राजनीत है

मैं दूध लाया
आपने उसको मथा-उडेला
कभी ऊबाला, घी निकाला
बचे से फिर दही जमायी, मट्टठा बहाया
कभी उसको फाड़ा, पनीर सधाया
आपकी सृजनात्मकता अकल्पनीय है
पर इस दूध, मट्टठे का ज़िम्मेदार मैं नहीं हूँ
दूध का दही कर देना
आपकी तकनीक है
आपका शोध है

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )



करो कुछ भी करो, इतना करो, पागल मुझे कर दो

यूँ अपनी ज़ुल्फ का उलझा हुआ बादल मुझे कर दो
करो कुछ भी करो, इतना करो, पागल मुझे कर दो

चलो अब ख्वाइशों से ही भरेंगे मन का खाली पन
सिमट आओ ज़रा, आगोश का आगल मुझे कर दो

बहुत खामोश रहने लग गये हो, आज कल वैसे
सुना कर एक गज़ल अपनी, चलो, कायल मुझे कर दो

न मुमकिन है कभी श्रंगार का आइना बन पाऊँ
मगर जब भी सजो इतना करो काजल मुझे कर दो

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )










जानती हो

जानती हो !

वैसे, हमें अब याद नहीं आता
पर गुज़री शाम जब
शिफॉन की शफ़्फ़ाफ़ पशो-पेश
में तुमको देखा था
तब तांत की सूती में ढकी
तुमसे पहली मुलाक़ात
ताज़ा हो आयी थी।

तेज़ क़दम, ख्यालों में उलझे
खादी की सदरी में संभले
हम अपनी तरह के थे ,
खुले बालों में अंगुली लपेटे
कोलापुरी-रफ़्तार समेटे
तुम मेरी तरह की थी।

ऐसा लगा की उस मोड़ पे
एक बोस्तां हमपर से गुज़रा था
कटरा नील के कोने उस सकरी
सड़क पर जैसे ही मुड़ा था।

ग्रीष्म ने बेसुधी पर
अघोषित चढ़ाई की
जब तुम्हारे गेसुओं की नमी
मेरी सांसों में उतर आयी थी।

आज भी जब भाषा मेरे ख्यालों को
सजाने आती है तो
" कहाँ खोये रहते हो " की आवाज़
फिर से गूँज जाती है
हम भी हर मोड़ पर अब
रुक कर गुजरते हैं।

मुमकिन होता नहीं है वर्तमान में
कुछ भी निश्चित बताना
न ही मुनासिब है अतीत को
भूलना या भुलाना।

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )





पर मैं अब वहां नहीं रहता

कुछ लोग,
मुझमें मुझको ढूंढ़ने आते हैं।
पर मैं अब वहां
नहीं रहता।
दोस्ती, कशिश, वस्ल की
सरायें हैं
इन्हीं में अदावत और रंजिश
के बिस्तरों पर सुस्ताकर
गुज़रता हूँ।
बेनामी-उम्र के मीलों में
ढूंढ़ता हूँ खुद को
कभी मिल जाऊं तो
बता देना।


~ सूफ़ी बेनाम




बहुत लम्बे सफ़र से लोग जो आते हैं कहते हैं

वज़्न - 1222 1222 1222 1222
काफ़िया - साया(आया), रदीफ़ - नहीं करते

कभी रंगों को अपने, अस्ल से साया नहीं करते
जो हों अपने लिये वो इश्क़ पे ज़ाया नहीं करते

वहम है वस्ल में खुद को खुदी से दूर कर देना
मुहब्बत करने में नज़दीकियां लाया नहीं करते

बहुत लम्बे सफ़र से लोग जो आते हैं कहते हैं
जिने आज़ाद रक्खो वो कहीं जाया नहीं करते

हमें अब लाज़मी लगते नहीं हैं दोस्त, क्या कर लें
अकेलेपन को अब हम हर कहीं ज़ाया नहीं करते

अधूरा होना किस्मत है, अधूरा जीना आफत, पर
अधूरापन जो जीते हैं वो बतलाया नहीं करते।

मेरे मालिक मेरे मौला, छुपा तुमसे है क्या अब तक
किसी भी झूठ को अब हम यूं दफनाया नहीं करते।

~ सूफ़ी बेनाम










ज़रा देखो, ये कैसे हो पड़ी औंधी, सड़क पर ही

1222-1222-1222-1222

ज़रा देखो, ये कैसे हो पड़ी औंधी, सड़क पर ही
नशा भरती हो कश में क्यों अगर झिलता नहीं तुमसे

गज़ब एहसास उलझन थी जो गुज़री रात भर लिपटे
अगर चाहत नहीं होती कभी टिकता नहीं तुमसे

हजारों ख्वाइशें हैं पैडलों की, ज़ीन की, पर अब
बंधा एक चेन से हूँ, इसलिये मिलता नहीं तुमसे

मेरे लोहे की कैंची, रान से चक्कर घुमा कर के
बिना मेरे वो मीलों का सफर पटता नहीं तुमसे

हमारी घंटियां तुम बेवजह इतना बजाती हो
तुमी को हैं दिये दो ब्रेक पर रुकता नहीं तुमसे

भले दिन भर चलाया कर, ज़रा धीरे घुमाया कर
वज़न सौ मन हो तेरा, मैं कभी थकता नहीं तुमसे

- सूफी बेनाम