Wednesday, September 27, 2017

उमर में हम ही क्यों तिगड़म हुए हैं

1222-1222-122

महक-बुस्तान से पुरनम हुए हैं
हमारे शौक पूरे कम हुए हैं

हमारे दोस्त सब गैंती-दराती
मगर कुछ इश्क़ में मरहम हुए हैं

नशीली नींद में झोंके हवा से
कई वो चाँद जो पूनम हुए हैं

जवां-उम्मीद, हसरत-नरगिसी सब
शिकस्ते उम्र के हमदम हुए हैं

बिना पानी के कुछ तैराक़ हैं जो
यहाँ पर बेफ़िकर आलम हुए हैं

हसीं गोता-बरी हैं ज़िन्दगी में
वही हर रेस में मध्धम हुए हैं

तज़ुर्बे है अगर बहतर बनाते
उमर में हम ही क्यों तिगड़म हुए हैं

ढकें ख़ुश-रू औ चहरे की निगाहें
ज़मीं पे आप के बस ख़म हुए हैं

उसे महसूस होगा प्यार मेरा
किसी आग़ाज़ के मौसम हुए हैं

~ सूफ़ी बेनाम



ख़ुश-रू- charming face ; बुस्तां - scented garden ; पुरनम - filled with tears ; 
गैंती - digging tool ; दराती - saw with teeth; ख़म - locks of hair ; 
गोता-बरी - free to dive/capable of deep diving ; मध्धम - slow.

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