समय की सूचियों में, नाम जुड़ते हैं, नये कब -अब
पुराने लोग हैं, कुछ जो बहलने, लौट आते हैं
मिला करते हैं, हम भी अब, सभी से इश्क़ में घुलकर
उमर-बेताब को, हम कब कहां, संभाल पाते हैं
नतीजे एक से, होते कहाँ हैं, हर महोब्बत के
तज़रबा शक्ल को हम, देख के, पहचान जाते हैं
~ सूफ़ी बेनाम
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