Thursday, July 13, 2017

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

लिखावट एक से, एक नहीं बनती हैं भाषायें
न ही उनको व्यकारण की परिधी बांधती है
शब्दों के समागम और उनसे उमड़ते मयार भी
अपनी कोहराई कालपनाओं में रास्ते ढूंढती हैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम लिखती हो तो ज्ञान का आभास होता है
अज्ञानता की निशानी हैं भाषायें, मेरे लिये पर
तुम अपनी हिन्दी में भी मुस्कराती रहती हो
जगाती हजारों व्यंग वो, मेरे भीतर ही भीतर

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

ख्याल पका लाती है हरेक रचना तुमहारी
हूँ अनभिग्ज्ञ, अनुठापन अक्सर ढूँढता मैं
विदित नहीं हमको कि ये चेतना क्या है
तुम्हारे रीत और काल की समानता क्या है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

तुम जब लिखती हो तो तुम सम्पूर्ण होती
शब्द दिखाते हैं पैबंद मेरे आधूरेपन पर
काव्य में बहते हर रोज़ देखा है तुमको
छन्द में कुछ मात्राओं पे हर पल संभलता मैं

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भावनाओं के पर ले, पहुँच से दूर जा उडी हैं
स्वयम की परिधी ढूंडती भाषाई-अभिलाषायें
पीछे पलट जब कभी देखता हूँ अपने लिखे को
पहचानत नहीं मैं अपने चहरे, अपनी परिभाषायें

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

भाषा-भावनाओं का अनुवाद नहीं मेरे लिये
अर्ध-चेतन होकर मनकी तरंगें बर्गलाती हैं
शुष्क कागज़ पर लिखा निढाल सूक्ष्म मेरा
मेरे बदलाव पर, समझ के आघात बचाता है

मेरी हिन्दी तुम्हारी हिन्दी से थोड़ी अलग है

~ सूफी बेनाम



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