Sunday, April 24, 2016

जागेंगे फिर से किल्लों में

जागेंगे फिर से किल्लों में
जवां होंगे फिर फूलों में
महक लेंगे तुम्हें फिर से
ज़रा जीने की हसरत में

कभी हम कैस लैला भी
करेंगे सिर पे पत्थर भी
बहेंगे माथ रुधिर से
इबादत भी हसरत भी

भरे हैं आज हम समझो
छलकते आज हम समझो
एक सूखी सदी गुज़रे
ये साल जानो या न समझो

~ सूफ़ी बेनाम



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