ज़रा सोचो कि क्या मंज़र रह होगा
किनारे पे धंसे सफ़ीनों का
और दूर तक उजाड़-बंजर बिछा होगा
जहाँ सुनते हैं हम तुम लहरों के तराने को
सदा डुबो के सोडा-नींबू-पानी में
तुमारी नेकियों सा वो किनारा भी पहेली है
जहाँ दौड़ते पैरों को पयाब की नज़ाकत का
खारे की बू नमक चिपचिपाहट का
भीना असर हरदम रहा होगा
अपने भीतर सदियों को ढका था कोई
जहाँ न कोई कविता न आग का ज़र छुआ होगा
ढकेगा फिर जलातत में खुदी को खार पानी से
रेगिस्तान सा बंजर किसी कवी का दिल रहा होगा
वो अकेला था तंग किनारों पे खिंचा हुआ है
दिल मेरा भी समुन्दर दर्द में डूबा हुआ है
~ सूफ़ी बेनाम
किनारे पे धंसे सफ़ीनों का
और दूर तक उजाड़-बंजर बिछा होगा
जहाँ सुनते हैं हम तुम लहरों के तराने को
सदा डुबो के सोडा-नींबू-पानी में
तुमारी नेकियों सा वो किनारा भी पहेली है
जहाँ दौड़ते पैरों को पयाब की नज़ाकत का
खारे की बू नमक चिपचिपाहट का
भीना असर हरदम रहा होगा
अपने भीतर सदियों को ढका था कोई
जहाँ न कोई कविता न आग का ज़र छुआ होगा
ढकेगा फिर जलातत में खुदी को खार पानी से
रेगिस्तान सा बंजर किसी कवी का दिल रहा होगा
वो अकेला था तंग किनारों पे खिंचा हुआ है
दिल मेरा भी समुन्दर दर्द में डूबा हुआ है
~ सूफ़ी बेनाम
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