अपनी करवट हम सोये थे
तुम आये आलिंगन करने
स्वप्न पराग के मधुकर बनकर
मन-मकरंग जगाया किंचित
हम बेसुध निद्राई ही थे
तकिये को आगोश में भर कर
रह गये तनहा कुस-मुस कर
हमने रात गुज़ारी तनहा
तिमिर को पैबंद लगी जब
खोले आंखों ने जब बिस्तर
सांसें कुछ आवेश में भरकर
जाग उठा ठहराव को तजकर
एक सिलवट मेरी बांह जकड़कर
चूमी मुझको नाक टकर-कर
पूछ बैठी कि थे कहाँ खोये
कह गुज़रा मैं तनहा रात भर
~ सूफ़ी बेनाम
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