Wednesday, April 6, 2016

डूबने को फिर सपना हो न हो

डूबने को फिर सपना हो न हो
हसरतों का आँसु गहरा हो न हो

रह वफ़ा के गाँव में गर घर मिले
हसरतों को मन चुना क़स्र हो न हो

आज तू इस लम्स को कुर्बान दे
चाह की तक़दीर खंजर हो ना हो

राह को दो-चार जो मंज़र मिले
रास्तों का कोइ दिलबर हो न हो

फिर ठिकाने खोज करते काफिले
शाम को फिर रात का घर हो न हो

हर किसी के दौर आता आसमा
पर कभी अख्तर मुकद्दर हो न हो

हौसला रख हर कहीं मेरा निशां
हर इबादत श्याम का घर हो न हो

~ सूफी बेनाम
क़स्र - palace






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