तारीखों के गुलदान,
हज़ारों लम्हों के साये दीवारों पे टंगे, मेज़ पे धूल खाये
तारीखों को आपस में गूंथ
महीना दर महीना बंधे
दिनों पे लिखे काम पर
सही और काट के निशानों से घबराये
कहीं मुलाक़ातों के लाल गोले
कहीं प्रश्न चिन्हों से गुदे
नये साल के सरीखे
गुज़रे साल के पुराने कैलेंडर
देखकर सोचता हूँ
कब वापस बंध गयीं थी मेरी तस्वीर से
वो सभी कवितायेँ जिन्हें
दिल के नाखूनों से बचाकर
पिंजर से आज़ाद कर के उड़ा आया था
कैसे बीतने के बाद भी
गुज़रा साल साथ रुके रहना चाहता है
क्योंकि इसके हर दिन में
मैं था, हम थे और बेनाम हसरतों के बदन
कागज़ी, सुन्दर, आलतायी पाँव के पद चिन्न्ह
~ सूफ़ी बेनाम
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