गिरह :
हाथ मेरे लिखे कुछ अपने हैं
जो न सच हो सके वो सपने हैं
मतला:
बादलों पर कहीं उलझते हैं
ख्वाब जो बार बार दहकते हैं
सूख कर फूल शाख पर तनहा
रोज़ गिरते हैं और बिखरते हैं
तुमसे पूछा नहीं कि क्या सोचा
रिश्ते कब पूछ कर के बनते हैं
चाहतों की नयी किताबत में
हर्फ़ हर रोज़ मिलने आते हैं
जाने इश्क़ या कुफ्र लेकर साया
रोज़ ख़्वाबों में तुझसे मिलते हैं
~ सूफी बेनाम
हाथ मेरे लिखे कुछ अपने हैं
जो न सच हो सके वो सपने हैं
मतला:
बादलों पर कहीं उलझते हैं
ख्वाब जो बार बार दहकते हैं
सूख कर फूल शाख पर तनहा
रोज़ गिरते हैं और बिखरते हैं
तुमसे पूछा नहीं कि क्या सोचा
रिश्ते कब पूछ कर के बनते हैं
चाहतों की नयी किताबत में
हर्फ़ हर रोज़ मिलने आते हैं
जाने इश्क़ या कुफ्र लेकर साया
रोज़ ख़्वाबों में तुझसे मिलते हैं
~ सूफी बेनाम
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