Thursday, September 26, 2013

शोर

शोर सड़क का और
दिन का कोलाहल थमा
तो घर पर बच्चों
के लड़ाई झगड़े
बर्तन , घंटी , पानी
कभी सीरियल कभी
चीख़ पुकार
रात को ए सी की आवाज़
खिसकती चिटकनी
घड़ी की टिक-टिक
और फिर सांसों की खुशबू - उलझन!

कुछ देर को लगता रहा
कि क्यूं इतनी आवाजें
रहती थीं पार करने को
क्या तुम्हारी सांसो
तक पहुँचने को ?
फिर लगा की
श्रंखला की एक कड़ी
जिसमे छाँव दर्पण रही
मन भीचने को
एक सहारा रात का था
ज़िन्दगी वहीँ से शुरू होती थी
हर रोज़ शोर में बदलकर।

~ सूफी बेनाम


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