Wednesday, September 18, 2013

अधूरी- मुलाकातें

मैंने भी सबक यही लिया इस दोस्ती से,
आग तो चिंगारी से लगती ज़रूर है।

जिस तरफ झांकना भी हमको था मना
आस दर्द को उस तरफ से आती ज़रूर है।

रोज़ मिलने से भी कुछ होता नहीं रफ्ता-रफ्ता
मेरी यादें चंद लम्बी दोपहरों की कर्ज़दार ज़रूर हैं।

अधूरी इन मुलाकातों से हम उब चुके हैं
कभी-कभी काजल और बिन्दी को बेताब ज़रूर हैं।

हुस्न को जिस्म से नहीं महक से समझकर देखेंगे
ज़िन्दगी नये नये ज़रिये दिखलाती ज़रूर है।

मेरा क्या है बेनामी की शौहरत कितनी भी हो
इन मुलाकातों को बईमान जस्बे कबूल नहीं।


~ सूफी बेनाम







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