Saturday, September 14, 2013

ख्याल

दिल की दो परत ऊपर
एक ख्यालों का खुबसूरत बागीचा है
यहाँ का मज़हब महोबत है
और चाहत ख्याली है
दिखता भी सिर्फ़ दिल की आँखों से है।

जब मै शान्त बैठा रहता हूँ
अपने बिस्तर की किनारी पर
तब एक ख्याल धीरे से
मेरे दिमाग की लियाक़त पर
चमकता है,कौंधता है, उतरता है ।

उसको पूरी-अधूरी तरह जकड़ता हूँ
शब्दों के गोशा में
पर बशर-ए-अर्क की नखत से
पहुँच के बाहर हो जाते हैं,
शर्मा जाते हैं, उड़ जाते हैं ।

मै कई बार कूदता रहता हूँ
बच्चों की तरह, उनको पकड़ने
पर मेरी मुट्ठी की कैद कमज़ोर है
ये सेमल के बिनौले पहुँच से दूर हो जाते हैं
खो जाते हैं, बेनाम आसमान में।

उनको आज़ाद अपनी पहुँच से दूर,
देखकर तस्सली होती है
वो भी बशीर-ए-कैद पे मुस्कुराते हैं
पर सुना है सूफी के धिक्र से उलझकर
थम जाते हैं, कलम होने को ।

उम्मीद है हमको कि आने वाले समय से
कुछ सुखनवर इन परतों के तसव्वुफ़ को
पड़ेंगे, जियेंगे और कुछ नया लिखेंगे
तब मै भी एक ख्याल बनकर इन
सेमली बिनौलों को कुछ दूर उड़ा ले जाऊँगा।

~ सूफी बेनाम





लियाक़त - capacity, range; बशर-ए-अर्क - human substance; नखत - fragrance ; गोशा  - hut;

No comments:

Post a Comment

Please leave comments after you read my work. It helps.