Sunday, October 9, 2016

इस राह को मंज़िल की आदत न हीं पड़ने दो

उर्दू अदब के बेहतरीन शायर जनाब बशीर बद्र साहब का एक शेर यूँ है.....

पत्थर की निगाह वालों,गम में वो रवानी है
खुद राह बना लेगा, बहता हुआ पानी है

वज़्न - 221 1222 221 1222
अर्कान - मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
बह्र - बह्रे हज़ज मुसम्मन अख़रब मुख़न्नक़

काफ़िया - आनी
रदीफ़ - है

जनाब जनाब बशीर बद्र साहब के मिसरे से गिरह देकर आप सबके साथ, ग़ज़ल में उतरने की कोशिश ....

किस चश्म से निकला है, अब कौन गवाही दे
खुद राह बना लेगा, बहता हुआ पानी है।

बादल से लदे दिन में अब आग लगनी है
इस नर्म से कम्बल की चाहत फरवानी है।

रेती-ले उजाड़ों के हालात बताते थे
गहरे एक सागर में डूब हुआ पानी है।

गर शौक बने जीवन तो राह मुसाफिर पर
कुछ सांस मचल कर के ये उम्र बितानी है।

धीरे से कदम रखना कमरे में अगर आओ
कुछ नींद का कच्चा पन, पायल की रवानी है।

इस राह को मंज़िल की आदत न हीं पड़ने दो
बस हाथ में एक सपना दो चाह दीवानी है।

दो कोस हमें दे दो मीलों के ये सेहरा से
कुछ दूर का वादा है दो सांस निभानी है।

एक लम्स की बस्ती में नवरात नवेली सी
बुझती न ये ख्वाइश है बस आग है पानी है

हर रोज़ सजा करना चाहत के सफ़ीने पर
हर शाम सुलगती सी ग़ज़लों में डुबानी है।

दिन रात परेशां हूँ जीवन न सधा मेरा
बस नींद की बोतल में एक रात सुहानी है।

मुह मोड़ के करवट में सोते है निज़ा करके
बेनाम सिरहानों पर ये रात बितानी है।


~ सूफ़ी बेनाम




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