Thursday, October 6, 2016

रुके हुए कमरे

रुके हुए कमरों की चार दीवारी में
झांकते हुए दरीचों पे अटकती
उड़ती चिड़ियां
नीली झीलें
बदलते आसमान
बिखरे गुलफ़ाम।

शायद,
पलट कर देखने पर मिलने लगें
बंद दराजों के
अनखुले लिफाफों में बेनाम पैगाम। 

चूने की रंग-रोगन
पे घिसटती हथेलियां
बखान करतीं बचपन के हंगामा। 

सागवान के रेशे लैकर-चढे पलंग पर
बेसुध गद्दों में
कई एहसासों के अर्क ग़ुलाम
नज़र ने सीख लिया है
एकटक टिके रहना निस्तब्धता में
सालों घिसे फ़र्श के मोजैक के उखड़ते टुकड़े
ले लेते हैं फटी एड़ियों से इन्तेक़ाम। 

~ सूफ़ी बेनाम



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