Thursday, October 13, 2016

चाँद की ओज

चाँद की
ताज-पोशी से
अविज्ञ-रात का
सिकन्दर परेशान था

सवेरों के यूनान से
काठ के अश्वों पे सवार
आधी दुनिया

एक छत्र कर चुका था लेकिन
हर शाम
खुद चाँदनी की किंकरता
स्वीकार करते हुए
परछाइयों में छिपता
खुद को
अस्तित्व की कंदिराओं में
इंसान के दिलों तले
महफूज़ रखता था

क्षुद्र तारागणों ने भी
तारापति की घोषणा से
स्वीकृति दिखाई थी

व्यग्र व्याकुल बेचैन
सिकन्दर ने
जलदस्युओं के बादल
बटमार स्वप्न-करों,
सूक्ष्म लुटेरों,
पुरुष की वेदना
बेलगाम कवियों की टोलियां
नील के पत्थर
दर्द में टूटे घर
प्रेमप्रवण संगियों
विस्मयी आँधियों
की बड़ी फ़ौज इकठ्ठा की

फिर क्या
खूब युद्ध हुआ ........
तांत्रिकों ने साधा

ब्रह्मवादियों ने माया बताया
कवि-मात्र ने ख्याल से घेरा
आरोग्य-साधकों ने ऊर्जा का स्रोत बनाया

चाँद थक कर छुपा पर
ईद और करवाचौथ ने फिर-फिर ढूंढा
समुद्रों ने लहर भरा वक्ष फुलाया
चाँद को डुबाया
बादलों ने उसे घेर कर चूमा
गोपियों ने कृष्ण को बुलाया
पर
चाँद की ओजपर
कोई ज़ोर न आया
वो निष्कलंक आज़ाद
निशा-ध्वज पर फहराया

निद्रा रहित अँधेरे
स्वप्नों के संशय घरों में
जा छुपे हैं
दिन निकल आया है
शब-ए-बयार है
सिकन्दर के घायलों ने
कम्बलों में मूह छुपाया है

रण-सैय्यम ने
चाँद को घटना बढ़ना सिखाया है

होश में रहता सिकन्दर
तो नाम भी देता तुमको
 बेवक़ती ने तुम्हें चाँद बताया है।

~ सूफ़ी बेनाम


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