Monday, October 26, 2015

क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है

उलझ ले मुझसे कि गर तेरा उस्लूब मोहब्बात है
कि ख़म में आज भी तेरे महकती जवानी है।

वफ़ा कर, कि उल्फ़त मिलती नहीं लाख चेहरों में
अदा-ए-आबिदा मेरे हमराज़ की लश्कर रवानी है।

खुदा भी सोचता है हर बार मेरे हाल-ए-हसरत पे
क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है।

ये नहीं सोचता मैं कभी मिल के गुज़र के फिर
सुराह-अल-ज़लज़ला क्यूँ आज फिर मेरी कहानी है।

अलाम-ए-अखतरों के रास्तों में मिलना बिछड़ना क्या
कि खोई लम्बी शामों को रातों की आदत पुरानी है।

रस्म-ए-सूफ़ियत में खुद को अब बेनाम कहना क्या
तेरे लफ़्ज़ों पे बस्ती मेरे तखल्लुस की ज़िंदगानी है।

~ सूफी बेनाम







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