Wednesday, August 7, 2013

उधेड़-बुन

शब्दों की उधेड़-बुन चल रही है
लच्छा -लच्छा बन के अंदाज़ उलझे हैं
दिमाग में अजीब सा आवारापन है
तसवीरें कौंधती रहती हैं एक रील बनकर

कभी गुलज़ार की आवाज़ का फ़रेब
कभी इक़बाल की सॊच का अंदाज़
कभी ग़ालिब की बयां -ए -जिंदगानी
कभी तुम्हारे नफसानी चुम्बन का स्वाद

इस मजलिस में सुनने वालों के
ख्याल की पसंद पहुँच और पैमाना
कभी दूर से कौंधती एक मीठी आवाज़
इरशाद-इरशाद

मानो मेरे पीछे से कोई कुछ कहता है
और मै तुम्हारी आँखों में देख के लिखता रहता हूँ
कुछ खुद को भुलाने के लिए
कुछ तुम्हारे बदन तक पहुँचने के लिए

हर वक़्त यह एहसास भी रहता है
की ना तुम कहीं हो, ना मै कहीं
ना पीछे कोई कहने वाला
ना कोई मजलिस ना सुननेवाले

बस एक रूहानी जस्बा है
जो शब्दॊ को कात कर कतारों में बिठाता है
और फिर कतारों को बुनकर
एक चददर की पहचान देता है

सुनने वाले दाम लगाते हैं
कुछ खरीद पाने की हैसियत रखते हैं
कुछ बस छू कर वाह वाह करते हैं
कभी दूर किसी की नज़र दूसरी चादर को बढती है
एक पन्ना पलटकर।

~ सूफी बेनाम



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